साल 1980 के आस-पास की बात है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गाँव में, मैं, दीपक, एक लॉ का छात्र था। माता-पिता का साया बचपन में ही उठ गया था, और मेरे चाचाजी ने मुझे अपनी संतान की तरह पाला। जिला कोर्ट में मुंशी रहे चाचाजी भी अब रिटायर हो चुके थे। छह सदस्यों के परिवार का भरण-पोषण उनकी छोटी सी पेंशन पर मुश्किल हो रहा था। मैं अपनी पढ़ाई के साथ-साथ परिवार का सहारा बनने की हर कोशिश करता था। रात में ऑटो चलाना, अखबार बाँटना, होटल में नाइट शिफ्ट करना, हर छोटा-बड़ा काम मैं कर लेता था। पर ये कमाई इतनी नहीं थी कि सबका पेट पाल सकूँ और अपनी पढ़ाई भी पूरी कर सकूँ।
एक दिन, मैं अपनी चिंताओं में डूबा घर लौट रहा था। रास्ते में श्मशान घाट पड़ता था, जहाँ का एक अघोरी मुझे रोज़ आते-जाते देखता था। अचानक उसने मुझे रोका और भारी आवाज़ में पूछा, “तुम ही हो ना, दीपक? बेरोज़गार? कुछ पैसे कमाना चाहोगे?” मेरे मन में उम्मीद की किरण जगी। मैंने पूछा, “जी ज़रूर, पर काम क्या होगा?” अघोरी ने अपनी लाल आँखों से मुझे घूरते हुए कहा कि वह जन कल्याण के लिए कुछ कार्य सिद्ध करता है। ऐसा ही एक काम अगले शनिवार रात को है। यह कोई कठिन काम नहीं, केवल 15 मिनट का है, जिसके बदले तुम्हें पूरे 5000 रुपये मिलेंगे।
पाँच हज़ार रुपये सुनकर मेरा दिमाग चकरा गया। मेरे दिमाग और दिल के बीच एक जंग छिड़ गई। दिल कह रहा था कि जान है तो जहान है, मना कर दे। पर दिमाग ने गरीबी और ज़रूरतों का हवाला देते हुए कहा कि केवल 15 मिनट के लिए श्मशान में रहकर 5000 रुपये मिलेंगे, जिससे चाचाजी का इलाज, मेरी पढ़ाई और घर की मरम्मत, सब हो जाएगा। मेरी गरीबी की ज़रूरतें श्मशान के अदृश्य प्रेतों से भी ज़्यादा विकराल थीं। अंत में, मेरा दिमाग जीता और मैंने अघोरी को अगले शनिवार आने की हामी भर दी। घर लौटकर भी मेरा मन अशांत रहा, अघोरी और श्मशान मेरे विचारों पर हावी थे।
जैसे-तैसे अगला शनिवार आया। सुबह से ही मेरे मन में अजीब सी बेचैनी थी। अघोरी ने मुझे अकेले आने को कहा था, लेकिन मैं इतना नादान नहीं था। मैंने अपने बचपन के दोस्त राजवीर को सारी बात बताई, और वह खुशी-खुशी मेरे साथ चलने को तैयार हो गया। उसके साथ मेरे दो और दोस्त अमर और बंसी भी थे। हम चारों मजबूत डंडे और टॉर्च लेकर श्मशान घाट की ओर चल दिए। श्मशान घाट से कुछ दूरी पर घनी झाड़ियाँ और ऊँचे पेड़ थे। मैंने अपने दोस्तों को पेड़ों पर छिपने को कहा और खुद श्मशान की ओर बढ़ चला।
जैसे ही मैं श्मशान के अंदर कुछ कदम बढ़ा, मुझे अघोरी की आवाज़ सुनाई दी, “इधर आओ।” मैंने मुड़कर देखा तो एक काली सी आकृति खड़ी थी, वह अघोरी था। उसने मुझे अपने साथ चलने को कहा और श्मशान से कुछ दूरी पर ज़मीन पर एक गोल घेरा बनाकर बैठ गया। उसने मुझे अपने सामने बिठाया और बोला, “दीपक, ध्यान से सुनो। 12 बजने वाले हैं। 12 बजते ही तुम्हें यह हांडी लेकर जलती चिता के पास जाना है। तुम्हारे पास केवल 15 मिनट होंगे। जो चिता तेज़ी से जल रही है, उसके पैरों पर यह हांडी रखकर चावल पकने देना और ठीक 10 मिनट बाद हांडी उठाकर आ जाना।”
यह कहकर अघोरी ने एक छोटी परात में कुछ सामग्री डालकर आग जलाई और धीरे-धीरे मंत्र बुदबुदाने लगा। उसने कुछ मंत्र पढ़कर मेरे ऊपर भी फूँके। फिर चावलों से भरी एक हांडी में एक बोतल से पानी भरने लगा। मैंने मध्यम रोशनी में देखा कि उस पानी का रंग लाल था। यह पानी नहीं, खून था! मेरे जिस्म में खौफ की एक लहर दौड़ गई, पर मैं हिम्मत करके बैठा रहा। 12 बजते ही अघोरी ने मुझे हांडी थमाई और बोला, “जाओ, तुरंत जाओ! जो कहा है करके आओ।” मैंने भगवान का नाम लेकर हांडी उठाई और श्मशान के अंदर चल दिया।
मैं अभी कुछ ही कदम चला था कि देखा, श्मशान के अंदर दो चिताएँ सुलग रही थीं। एक की राख ठंडी पड़ चुकी थी, जबकि दूसरी देखकर लग रहा था कि उसे कुछ देर पहले ही जलाया गया था। पर हिंदू धर्म के अनुसार सूर्यास्त के बाद दाह संस्कार नहीं होता, तो यह किसने किया? इन्हीं सवालों से जूझते हुए मैं तेज़ी से दहकती चिता के पास पहुँचा और हांडी को उसके पाँवों के पास रख दिया। हांडी में चावलों के पकने की बुदबुदाहट साफ़ सुनाई दे रही थी। सब कुछ सामान्य था। चावलों की भाप से एक अजीब सी गंध आने लगी। तभी मुझे लगा कि मेरे पीछे कुछ छिपा है।
अनगिनत कदमों की आहट मुझे स्पष्ट सुनाई दे रही थी। घबराहट से मेरा होश उड़ गए। मैंने हिम्मत करके पीछे मुड़कर देखा कि यह शोर कैसा है? जो नज़ारा मैंने देखा, वह बेहद खौफनाक था। मेरी आँखें फटी की फटी रह गईं, और पैर वहीं थम गए। जिस चिता पर हांडी रखी थी, उसे चारों ओर से सैकड़ों बौने व्यक्तियों ने घेर रखा था। वे बौने लगभग ढाई-तीन फुट के थे, सभी गंजे और नग्न अवस्था में चिता से लगातार बाहर निकलते जा रहे थे। उनकी संख्या बढ़ती जा रही थी, और वे मेरी ओर भागने लगे, चिल्लाते हुए, “यह हांडी हमें दे दो, यह हांडी हमें दे दो!”
मैं श्मशान के बिल्कुल बीच में था, और बौनों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही थी। वे चिता से एक के बाद एक निकलते ही जा रहे थे। तभी मेरे अंतर्मन में एक आवाज़ गूंजी, “भाग दीपक भाग!” मैंने तुरंत श्मशान से बाहर की ओर दौड़ लगाई, पर शायद मैंने देर कर दी थी। पाँच-सात बौनों ने मेरे पैरों को पकड़ लिया और मेरे मांस का लोथड़ा अलग करने लगे। मैंने हिम्मत नहीं हारी और अपनी पूरी जान लगाकर श्मशान से बाहर निकलने की कोशिश की। तभी राजवीर, अमर और बंसी, तीनों अपने हाथों में डंडे लिए मेरे सामने आ खड़े हुए।
राजवीर ने हिम्मत देते हुए कहा, “दीपक, तू चिंता मत कर। हम आ गए, तुझे कुछ नहीं होने देंगे।” उसके कहते ही अमन और बंसी भी मेरी ओर दौड़ पड़े। लेकिन बौनों की तादाद इतनी ज़्यादा थी कि उनका कोई हिसाब नहीं था, और वे अभी भी चिता से निकलते जा रहे थे। मेरे दोस्तों ने हार नहीं मानी। वे डंडों से बौनों को मारते हुए मुझे दूर कर रहे थे, और मुझे सहारे से पकड़कर श्मशान के बाहर ले आए। बौने श्मशान घाट से बाहर नहीं आए, बस सभी गेट पर ही खड़े थे, एक फौज की तरह चावलों की हांडी को देख रहे थे।
हम चारों दोस्त ज़िंदा बाहर आकर खुश थे, पर सबके मन में एक ही सवाल गूंज रहा था कि आखिर ये बौने कौन थे और किसलिए हांडी के पीछे दौड़ रहे थे? हम सीधा उस अघोरी के पास गए। मुझे और मेरे दोस्तों को जिंदा देखकर वह चौंक गया, और उनके गुस्से भरे चेहरों को देखकर उसके पसीने छूटने लगे। डर के मारे वह भागने ही वाला था कि मेरे दोस्तों ने उसे डंडों से पीटकर अधमरा कर दिया। राजवीर ने उससे पूछा, “बिना कुछ पूछे तुझे इसलिए मारा ताकि तू झूठ बोलने की गलती दोबारा न करे, समझा? सीधा-सीधा बता, कौन हैं ये बौने और क्या चाहते थे?”
अघोरी ने लंबी साँस ली और धीरे से बताया कि ये रक्त पिशाच
हैं, जिन्हें हमारी दंत कथाओं में जिक्र किया गया है। इन्हें जन्मों से भूख का वरदान और शाप दोनों मिला है। वे केवल खून पीते हैं, पर अनाज खाते ही उन्हें मुक्ति मिल जाती है। एक रक्त पिशाच मुक्त होने पर इस धरती पर 10 सोने के सिक्के छोड़कर जाता है। मेरे दादा ने अपनी सिद्धियों से इन्हीं रक्त पिशाचों को जगाया और चिता के जरिए इस दुनिया में लाए थे। मैंने पूछा, “तो इसका मतलब इस हांडी में जितने चावल के दाने हैं, रक्त पिशाच हर एक दाने के बदले 10 सोने के सिक्के देगा?” अघोरी ने हाँ में सिर हिलाते हुए कहा कि हर चावल का दाना खाने के बाद पिशाच मुक्त होकर 10 सोने के सिक्कों में बदल जाएगा।
राजवीर ने पूछा, “तो अगर रक्त पिशाच को अनाज ही चाहिए तो फिर वो हमारे शरीर को क्यों नोच रहे थे?” अघोरी बोला, “तुम भूल गए, रक्त पिशाच जन्म से ही भूखा होता है। उसकी भूख उसे इतना अंधा बना देती है कि वह किसी राक्षस से कम नहीं है। उसे मुक्ति अनाज के दाने से मिलेगी, भले ही वह कितना भी मांस खा ले। इसीलिए तो मेरे दादा ने मेरे बाप को रक्त पिशाच को परोस दिया, और मैंने अपने दादा को। और यह लालच का पेट है, जो कभी भरता नहीं।”
मैं और मेरे दोस्त अब पूरी कहानी जान चुके थे। पर एक शक बाकी था कि अगर हमने उसे आज ज़िंदा छोड़ दिया, तो वह फिर किसी और दीपक, राजवीर या बंसी को रक्त पिशाच का शिकार बना देगा। इसलिए हमने चावल से भरी हांडी अघोरी को थमाई और उसे पकड़कर श्मशान के अंदर फेंक दिया। श्मशान के दरवाज़े पर अभी भी सैकड़ों बौने रक्त पिशाच अपनी मुक्ति का इंतजार कर रहे थे। चावल की हांडी के साथ अब अघोरी पर भी बौने रक्त पिशाच टूट पड़े। हमने अपनी आँखों से देखा कि एक चावल का दाना खाते ही एक रक्त पिशाच 10 सोने के सिक्कों में बदल गया।
जब तक हांडी में एक दाना भी चावल का बचा रहा, रक्त पिशाच उसे खाने के लिए आते रहे। देखते ही देखते हमारी आँखों के सामने एक सोने का पहाड़ खड़ा हो गया। पर इतना खौफनाक मंजर देखकर किसी की भी हिम्मत नहीं हो रही थी कि कोई उस सोने को छुए भी। और उस अघोरी का तो अता-पता भी नहीं था; उसकी एक-एक बोटी तक किसी को नहीं मिली। पर किसी तरह मैंने हिम्मत की और चावल के एक-एक दाने को खत्म करने के बाद रक्त पिशाचों द्वारा छोड़ा गया सारा सोना मैंने उसी श्मशान के किसी कोने में दफन कर दिया, जिसकी खबर सिर्फ मुझे है, सिर्फ मुझे।