खुशी की लुका-छिपी

ग्यारह बज चुके थे और बाहर सुबह से मूसलाधार बारिश हो रही थी। बारिश रुकने के इंतज़ार में, मैं सुबह से ही शराब पीकर डायरी लिख रहा था। आज न तो मैं काम पर गया, न ही अपने लिए खाना बनाया। बस अपनी बेटी खुशी की तस्वीर को सामने रखकर उसे याद कर रहा था और खुद को कोस रहा था। तभी मुझे खुशी की आवाज़ सुनाई दी, “पापा, पापा, मेरे साथ खेलो ना! मैं कब से आपका इंतज़ार कर रही हूँ? आज तो आप पूरे दिन घर पर थे, फिर भी मेरे साथ नहीं खेल रहे। अच्छा बताओ तो, मैं कहाँ छुपी हूँ? पापा, मुझे ढूंढो ना।”

मुझे याद आया कि काम से लौटने के बाद हम रोज़ रात को लुका-छिपी खेलते थे। लेकिन खुशी को बुलाने के बावजूद, मैं उसे ढूंढने नहीं गया। दो हफ़्ते पहले ही कोरोना ने मेरी बेटी को मुझसे छीन लिया था। क्या यह उसकी आवाज़ थी या सिर्फ़ मेरा वहम जो मुझे खेलने के लिए बुला रहा था? समझ न आने पर मैंने इसे नशे का भ्रम माना और बिस्तर पर सोने चला गया। कुछ ही पल बीते थे कि मुझे महसूस हुआ, खुशी मेरी छाती पर बैठकर अपने नाखूनों से उसे चीर रही थी, रोते हुए कह रही थी, “पापा, मुझे ढूंढने क्यों नहीं आए? मैं कब से आपके साथ खेलने को तैयार थी? पर चिंता मत करो, मैं तुम्हें लेने वापस ज़रूर आऊंगी। फिर हम दोनों साथ में लुका-छिपी खेलेंगे।”

दर्द से छटपटाते हुए मैंने आँखें खोलीं, तो सामने कोई नहीं था। डर के मारे मेरी आँखें फैल गईं और मेरा नशा उतर गया। खुशी की बातें अब भी मुझे अंदर तक कचोट रही थीं। यह कैसे मुमकिन था? मैंने तो उसे अपने हाथों से दफ़नाया था! इन विचारों में कब मेरी आँख लग गई, मुझे पता ही नहीं चला। अगली सुबह, दरवाज़े की घंटी से मेरी नींद खुली। हैंगओवर से मेरा सिर फटा जा रहा था। चिड़चिड़े मन से दरवाज़ा खोला, तो सामने दूधवाला हरिया खड़ा था। “हरिया, आज इतनी सुबह-सुबह…?” मैंने पूछा।

हरिया ने जवाब दिया, “भैया जी, दस बज चुके हैं। आज संडे है, तो क्या सोते ही रहेंगे?” मैं उसे कल रात की बात बताने ही वाला था कि अचानक चुप हो गया। मैंने सोचा, कहीं वह मुझे पागल न समझ बैठे। इसलिए मैंने दूध भी नहीं लिया और उसे लौटा दिया। मैं पेशे से एक अध्यापक हूँ और रविवार होने के कारण आज पूरा दिन घर पर ही था। मैंने सोचा क्यों न घर की साफ़-सफ़ाई कर ली जाए। जब मेरी पत्नी माया जीवित थी, वही सारा काम संभालती थी। एक दुर्घटना में उसे खोने के बाद खुशी मेरे पास थी, पर अब जब खुशी भी नहीं रही, यह घर मुझे काटने को दौड़ता था।

मन मारकर ही सही, मैंने घर की सफ़ाई का फ़ैसला किया। शाम होते-होते सारा काम निपट गया और थकान इतनी थी कि बिस्तर पर गिरते ही सो गया। आधी रात को मेरी आँख खुली। खाना बनाने का मन नहीं था, तो कुछ हल्का-फुल्का खाकर पेट भर लिया। खाना खाकर बिस्तर पर लेटा ही था कि दरवाज़े पर किसी ने दस्तक दी। “अरे! कौन है इतनी रात को? न खुद चैन से सोते हैं, न दूसरों को सोने देते हैं,” मैं बड़बड़ाया। दरवाज़ा खोलने जा ही रहा था कि महसूस हुआ किसी ने मेरा पैर पकड़ लिया है। पलट कर देखा, तो खुशी मेरे पैर से मांस नोच रही थी।

उसकी आँखें लाल थीं, आधा चेहरा सड़ा हुआ था और उस पर कीड़े रेंग रहे थे। बड़े-बड़े ख़ूँख़ार नाखून मेरी हड्डियों में धँस रहे थे। वह कह रही थी, “पापा, आप फिर काम पर जा रहे हो? जल्दी आना, माँ भी नहीं है। मैं घर पर अकेले खेलते-खेलते बोर हो जाती हूँ।” तभी दरवाज़े पर फिर दस्तक हुई। मेरा ध्यान हटते ही मैंने देखा, मेरे आस-पास कोई नहीं था, और मेरा पैर भी बिलकुल सही-सलामत था। इसे एक बार फिर भ्रम समझकर मैंने लंबी साँस ली और दरवाज़ा खोला, तो मेरी आँखें फटी की फटी रह गईं।

सामने खुशी खड़ी थी, कह रही थी, “पापा, मैं खुशी… आपकी बेटी। आपको लेने आई हूँ, चलो हम साथ में खेलते हैं, पापा।” मेरे पैरों तले ज़मीन खिसक गई। बदन काँप उठा। डर के मारे मैंने तुरंत दरवाज़ा बंद कर दिया, पर न तो डर ने मेरा पीछा छोड़ा और न ही खुशी ने। इससे पहले कि मैं कुछ समझ पाता, घर के हर कोने से उसकी आवाज़ें आने लगीं, “पापा, ढूंढो ना मुझे, मैं कब से यहीं छुपी हूँ, पापा? पापा, इधर देखो, इधर हूँ मैं! इधर छुपी हूँ, पापा… पापा, पापा!”

यह कैसे संभव था? अभी कुछ देर पहले तो खुशी की आवाज़ घर के बाहर से आ रही थी, और अब अचानक अंदर से! पागलों की तरह मैं अपनी बेटी की आवाज़ का पीछा करने लगा। कभी बिस्तर के नीचे, कभी अलमारी के अंदर, कभी रसोई में, तो कभी सोफ़े के पीछे। मैंने हर वह जगह छान मारी जहाँ खुशी छिपा करती थी, पर वह कहीं नहीं दिखी। लेकिन उसकी आवाज़ अब भी मेरे कानों में गूँज रही थी, जिससे मेरा दिल ज़ोरों से धड़क रहा था। तभी मैंने देखा, अलमारी के अंदर से मेरी बेटी खुशी रेंगते हुए मेरी ओर आ रही थी।

“पापा, चलो ना मेरे साथ खेलने। कितना समय हो गया हम दोनों को साथ खेले हुए? जब से मैं बीमार पड़ी हूँ, आपने एक बार भी मेरे साथ लुका-छिपी नहीं खेली है।” खुशी अपनी बाँहें फैलाए मुझे गले लगाने को मेरी ओर बढ़ रही थी। मुझे कुछ भी समझ नहीं आ रहा था कि यह क्या हो रहा है। इससे पहले कि मैं कुछ समझ पाता, मेरी आँखों के सामने अँधेरा छाने लगा। जब मेरी आँख खुली, तो सामने हरिया खड़ा था। सुबह हो चुकी थी, और मैं घर के बाहर बेहोश मिला था। एक आदमी ने पूछा, “भैया जी, आप ठीक तो हैं? आपको इस हाल में देखकर मैं डर ही गया था।”

हरिया मुझे सहारा देकर घर ले जा रहा था। मैंने कहा, “हरिया, मैं बिलकुल ठीक हूँ। तुम्हें चिंता करने की ज़रूरत नहीं।” “पर भैया, आपको हुआ क्या था जो आप बाहर ही बेहोश हो गए थे?” हरिया ने पूछा। उसके सवाल पर मैं कुछ पल चुप रहा, फिर इसे एक बुरा सपना समझकर बोला, “हरिया, मुझे कुछ याद नहीं आ रहा। शायद मुझे चक्कर आ गया था।” हरिया ने कहा, “ठीक है भैया जी, आप आराम करिए। मैंने अतिरिक्त दूध रसोई में रख दिया है, उसे गर्म करके पी लेना।” इतना कहकर हरिया मुझे घर के अंदर छोड़कर चला गया।

मैं सोच रहा था कि मैंने जो कल देखा और महसूस किया, वह सब सच था या सिर्फ़ एक बुरा सपना। मन ही मन मैंने कहा, “नहीं, सपना नहीं हो सकता। वह मुझे दिखी थी। इतना तो मुझे याद है कि वह मेरी बेटी खुशी ही थी। खुशी के लिए मेरी आँखें कभी धोखा नहीं खा सकतीं।” मैं अकेला इस सूने घर में खुद से बातें कर रहा था, सपने और हकीकत के बीच फँसा, जहाँ मुझे एक पल भी चैन नहीं मिल रहा था। तभी मेरे फ़ोन की घंटी बजी। एक अनजान नंबर था।

मैंने फ़ोन उठाया और कान से लगाया, पर कोई आवाज़ नहीं आई। दो-तीन बार ‘हैलो’ बोला, फिर भी कोई जवाब नहीं। जैसे ही मैं फ़ोन रखने वाला था, किसी के बोलने की आवाज़ आई। वह आवाज़ किसी और की नहीं, मेरी बेटी खुशी की थी। “पापा, अब आप मुझे भूल गए ना? मैंने आपसे कितनी बार कहा मेरे साथ खेलने चलो, पर आप हमेशा अपने काम में व्यस्त रहते थे। मुझे कोई समय नहीं देते थे। मैं आपसे कट्टी हूँ, पापा। आपने अपनी बेटी खुशी को भुला दिया ना? हाँ, पापा, आपने अपनी खुशी को भुला दिया। पर अब और नहीं, मैं आपको अपने साथ लेकर ही जाऊंगी। एक बार पीछे मुड़कर देखो तो, पापा।”

जैसे ही राहुल पीछे मुड़ा, उसे अपने सामने खुशी दिखाई दी। उसका आधा चेहरा सड़ा हुआ था, आँखें ख़ूँख़ार और डरावनी थीं। इंस्पेक्टर विजय राहुल की डायरी पढ़ रहा था, “पांडे (कॉन्स्टेबल), राहुल की इस डायरी में इसके आगे कुछ लिखा ही नहीं है।” कॉन्स्टेबल पांडे ने कहा, “साहब, लिखता भी कैसे? उसके बाद राहुल मर जो चुका था। राहुल की पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट में साफ़-साफ़ लिखा है कि उसकी मौत हार्ट अटैक से हुई थी।”

“डॉक्टर का कहना है कि राहुल ने कुछ डरावनी चीज़ देखी थी, शायद अपनी बेटी खुशी को। राहुल ने भी अपनी डायरी में यही लिखा है। मरने के बाद भी उसकी लाश की आँखें खुली हुई थीं, इसी वजह से उसे हार्ट अटैक आया था।” पर इंस्पेक्टर विजय को पांडे की बातें कुछ जम नहीं रही थीं। उसने तुरंत पूछा, “पर राहुल की बेटी तो कब की कोरोना से मर चुकी थी, फिर वो वापस कैसे आ सकती है?” पांडे ने जवाब दिया, “पर सच तो यही है, सर, राहुल हार्ट अटैक से मरा है। मैंने पड़ोस में भी पता किया था, सबका यही कहना था।”

“राहुल अपनी पत्नी माया के जाने का गम तो किसी तरह बर्दाश्त कर गया, लेकिन जब उसकी बेटी खुशी भी इस दुनिया को छोड़कर चली गई, तो वह बहुत परेशान रहने लगा था। वह अकेले हँसता, तो कभी खाली दीवार को देखकर रोने लगता। कितनी बार तो वह अपने घर के बाहर बेहोश मिला था? राम जाने किस मानसिक स्थिति से गुज़र रहा था वह?” इतना कहकर पांडे इंस्पेक्टर विजय को पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट देकर चला गया।

पुलिस को कुछ भी लगे, पर सच नहीं बदल सकता। उस रात जब राहुल अपनी डायरी लिख रहा था, उसे अपनी मरी हुई बेटी खुशी की आत्मा अलमारी से निकलती हुई दिखी। वह बाँहें फैलाए राहुल को अपने साथ लुका-छिपी खेलने के लिए बुला रही थी। राहुल भी अपनी बेटी के साथ उस अलमारी के अंदर जाकर बंद हो गया। पहले तो उसकी साँस घुटने लगी, फिर अचानक दिल का दौरा पड़ने से राहुल की मौत हो गई। खुशी ने कहा था कि वह अपने पापा को साथ लेकर जाएगी, और शायद खुशी ने अपना कहा सच कर दिखाया था।

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