देवदासी का बदला

कृष्ण मंदिर के बाहर गांव के सरपंच अचेत अवस्था में पड़े थे। उनके कपड़े अस्त-व्यस्त थे और शरीर पर गहरे चोट के निशान थे। ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो किसी ने उनके शरीर से सारा रक्त चूस लिया हो। देह पूरी तरह से सफेद पड़ चुकी थी और आंखें भयानक रूप से खुली हुई थीं। हालांकि, उनकी साँसें अभी भी बहुत धीमी गति से चल रही थीं। सुबह जब पुजारी पूजा के लिए मंदिर पहुँचे, तो सरपंच की इस भयावह स्थिति को देखकर तुरंत गांव वालों को सूचित किया। देखते ही देखते, पूरा गांव मंदिर के बाहर इकट्ठा हो गया।

भीड़ में से एक आदमी ने फुसफुसाते हुए कहा, “पुजारी जी, सरपंच की हालत तो मरने जैसी हो गई है!” पुजारी ने जवाब दिया, “मुझे क्या पता? मैं तो रात दस बजे मंदिर बंद करके चला गया था। सुबह पाँच बजे आया, तो उन्हें इसी अवस्था में देखा।” एक अन्य व्यक्ति ने कहा, “अभी ये जीवित हैं, इन्हें अस्पताल ले चलो!” पुजारी ने हस्तक्षेप करते हुए कहा, “अस्पताल ले जाने का कोई फायदा नहीं, ये कुछ पल के मेहमान हैं। मैं गंगाजल लेकर आता हूँ, सब इनकी मुक्ति की प्रार्थना करो।”

पुजारी जी ने मंदिर से गंगाजल लाकर जैसे ही सरपंच के मुँह पर छिड़का, उन्हें कुछ पलों के लिए होश आया। उन्होंने अपनी आँखें खोलीं और पुजारी जी के हाथ अपने हाथों में लेकर कांपते हुए कहा, “वो लौट आई है, कोई नहीं बचेगा। मुझे भी जाना होगा।” पुजारी ने उन्हें शांत करने की कोशिश करते हुए पूछा, “सरपंच, तुम्हें क्या हुआ है? किसकी बात कर रहे हो?” सरपंच ने डरी हुई आवाज़ में कहा, “मृदुला, वो आ गई है।” मृदुला का नाम सुनते ही पुजारी और ठाकुर दोनों के चेहरों पर भय साफ़ झलक उठा।

दोनों एक-दूसरे को हैरानी से देख रहे थे, तभी सरपंच ने अपनी अंतिम सांस ली। सरपंच के अंतिम संस्कार के बाद, पंडित जी मंदिर में पूजन-पाठ में व्यस्त थे। उस दिन उन्हें कुछ ज्यादा ही देर हो गई थी और रात के करीब साढ़े दस बज चुके थे। खुद से बात करते हुए उन्होंने कहा, “आज कुछ ज्यादा ही देर हो गई है। मुझे तुरंत यहाँ से निकलना होगा।” जैसे ही पंडित जी ने मंदिर का ताला लगाया, उन्हें भीतर से घुंघरू की आवाज़ सुनाई दी, मानो कोई नृत्य कर रहा हो।

पहले तो पंडित जी को लगा कि यह उनका वहम है, लेकिन जब घुंघरू की आवाज़ फिर से आई, तो उन्होंने मंदिर का दरवाज़ा खोला और भीतर दाखिल हो गए। मंदिर की लाइट चालू नहीं हो रही थी। गहरे अंधेरे में अभी भी घुंघरू की आवाज़ आ रही थी, मगर कोई नज़र नहीं आ रहा था। पंडित जी ने डरी हुई आवाज़ में पूछा, “कौन है यहाँ पर? सामने आओ! घुंघरू की आवाज़ से मुझे डराने की कोशिश मत करो।” तभी एक रहस्यमयी आवाज़ गूंजी, “यशोदा का नंद लाला, बृज का उजला है। मेरे लाल से तो सारा जग झिलमिलाए जु झू जुझू… जु झू जुझू।”

आवाज़ ने आगे कहा, “पंडित जी, देखिए ना… कान्हा तो सो ही नहीं रहे हैं और मैं कब से इन्हें सुलाने की कोशिश कर रही हूँ। आप ही इन्हें समझाइए ना? आजकल बहुत परेशान करने लगे हैं।” कहते हुए कोई ज़ोर से हंसने लगा। पंडित जी ने कांपते हुए कहा, “मृदुला, तुम हो? सामने आओ! तुम मृदुला नहीं हो सकती, वो तो मर चुकी है। तो फिर कौन है? मुझे डराने की कोशिश मत करो। मेरे ऊपर ठाकुर जी का आशीर्वाद है और तुम क्या हो? तुम तो उनकी दासी हो, एक देवदासी!”

आवाज़ ने ठंडी हंसी के साथ जवाब दिया, “हाँ, मैं हूँ देवदासी… ठाकुर जी की दासी। मगर तुम लोगों ने मेरा उपभोग किया है। मैं बदला लेने के लिए आई हूँ।” यह सुनते ही पंडित जी वहाँ से तुरंत भागे। उन्होंने मंदिर का दरवाज़ा भी बंद नहीं किया। अगली सुबह, भय के कारण उन्हें बहुत तेज़ बुखार था। गांव के वैद्य और ठाकुर उनके पास पहुँचे। पंडित जी नींद में भी बड़बड़ा रहे थे, “कोई नहीं बचेगा, वो लौट आई है। कोई नहीं बचेगा।”

ठाकुर ने उन्हें शांत करने की कोशिश करते हुए कहा, “ये क्या बोल रहे हो, पंडित जी? खामोश रहो। आपकी तबीयत तो ठीक है ना?” वैद्य ने बताया, “बुखार बहुत ज्यादा है, जो शायद सर पर चढ़ गया है। मगर कल तक तो बिलकुल ठीक थे, आज अचानक ये सब कैसे हो गया?” ठाकुर ने चिंता से कहा, “वैद्य जी, इन्हें कोई भी दवा दीजिए। यदि शहर से डॉक्टर बुलाना है तो बताइए, मगर पंडित जी का होश में आना ज़रूरी है। आखिर मुझे सच भी तो जानना है।”

यह कहते हुए ठाकुर साहब वहाँ से उठ गए और अपने घर पहुँच गए, जहाँ उन्होंने खुद को एक कमरे में बंद कर लिया। उनकी आँखों के सामने बीस साल पुराना किस्सा चलचित्र की तरह साफ़ था। गांव के सरपंच, ठाकुर और पंडित तीनों मिलकर शराब की महफ़िल सजाए हुए थे। ठाकुर ने शिकायत की थी, “इस गांव में तो मनोरंजन का कोई साधन ही नहीं है। शहर में देखो, सिनेमा और साथ में बहुत कुछ मिल जाता है।” सरपंच ने उसमें जोड़ा, “यहाँ तो शरीर की प्यास बुझाने के लिए भी कुछ नहीं है।”

ठाकुर ने पंडित जी से पूछा, “पंडित जी, कोई तो बंदोबस्त करो।” पंडित जी ने अपनी असमर्थता जताते हुए कहा, “मैं क्या कर सकता हूँ? मेरे हाथ में भी तो कुछ नहीं है। आप लोगों के पास तो ढेर सारा पैसा है, आप ही कुछ कीजिए।” सरपंच ने एक विचार के साथ कहा, “यहाँ के लोगों को अपनी इज्जत पैसे से ज्यादा प्यारी है। पैसों के बल पर कोई नहीं मानेगा। हाँ, मगर यदि…” ठाकुर ने उत्सुकता से पूछा, “क्या करना होगा, ये बताओ?”

सरपंच ने आगे कहा, “मैंने सुना है कि पहले के लोग देवदासी की प्रथा के ज़रिए शारीरिक सुख पाते थे। जो दासियाँ देवताओं के नाम पर आती थीं, उनसे देव दास सुख पाते थे।” पंडित जी ने आशंका जताई, “ऐसा होता तो था, मगर अब ये सब कोई नहीं मानता।” ठाकुर ने दृढ़ता से कहा, “यदि कोई नहीं मानता, तो हम लोग मानने पर मजबूर कर देंगे। कल सुबह ही मिलते हैं।”

अगली सुबह ठाकुर और सरपंच ने पूरे गांव के लोगों को चौपाल पर बुलाया। ठाकुर ने गाँव वालों से कहा, “आप सभी लोग जानते हैं कि पुजारी जी युवा अवस्था में ही ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए मंदिर में ठाकुर जी की सेवा पूजा कर रहे हैं। उनकी इसी भक्ति से प्रसन्न होकर कल रात कान्हा जी ने पुजारी जी को स्वप्न दिया कि कोई भी पुरुष अपने घर की कुंवारी कन्या को देवदासी बनाकर मंदिर में छोड़ सकता है, तो उसकी हर मनोकामना पूरी हो जाएगी। कितना मनोरम मौका है! आप लोग भी ठाकुर जी का आशीर्वाद प्राप्त कर सकते हैं।”

एक आदमी ने आपत्ति जताई, “देवदासी? मगर ये तो गलत है। ये प्रथा तो बंद हो चुकी है। यदि सरकार को पता चला तो? ये सब गलत है।” सरपंच ने उसे शांत करते हुए कहा, “वैसे तो दहेज प्रथा और बाल विवाह भी बंद हो चुके हैं, मगर अभी भी गांव में ये सब कुछ शुरू है। जब अपने मतलब के लिए हम सरकार के नियम-कानून नहीं मानते, तो ठाकुर जी की सेवा के लिए क्यों नियम मानेंगे? आगे आप लोगों की इच्छा है। हम तो चाहते हैं कि गांव वालों की हर इच्छा पूरी हो। हरिओम!”

सरपंच ने सबको अपने घर जाने को कह दिया। सभी लोग अपने घरों को लौट गए, मगर सबके मन में एक शंका ज़रूर थी। एक आदमी ने अपनी पत्नी से कहा, “झुमरी की अम्मा, क्या कहती हो? वैसे भी हमारे घर में तीन बेटियाँ हैं। मैं गरीब इनकी शादियों का बोझ नहीं उठा पाऊंगा। तुम चौथी बार माँ बनने वाली हो। क्यों ना हम लोग हमारी झुमरी को कान्हा जी की सेवा में समर्पित कर दें? क्या पता इस बार कान्हा जी हमारी सुन लें और झुमरी का कोई भाई आ जाए?”

दोनों पति-पत्नी ने काफी विचार-विमर्श के बाद झुमरी को देवदासी बनाने का निर्णय ले लिया। संयोग से इस बार झुमरी की माँ को बेटा हुआ। उसके पिता बहुत खुश हुए और उन्होंने सब लोगों को बताया कि कान्हा जी ने अपनी बेटी को देवदासी बनाने के बदले उन्हें बेटा दिया है। अब गांव वालों को यकीन हो गया था कि सरपंच साहब झूठ नहीं बोल रहे थे। मगर बेचारी झुमरी दिन भर मंदिर में सेवा करती और रात को सरपंच, ठाकुर और पुजारी जी की हवस का शिकार बनती।

उन लोगों ने उसे डरा दिया था कि यदि उसने किसी को भी कुछ बताया, तो उसके पूरे परिवार को खत्म कर देंगे। झुमरी चुपचाप सब कुछ सहन कर रही थी, क्योंकि बदले में उसे भरपेट खाना मिल रहा था, जो उसे कभी अपने घर पर नसीब नहीं हुआ था। झुमरी के परिवार की कहानी सुनकर दूसरे गांव में रहने वाला मनमोहन अपनी बीमार पत्नी के कारण बहुत परेशान था। वो ठीक से अपने परिवार की देखभाल भी नहीं कर पा रहा था।

मनमोहन ने सोचा, “क्या सच में कान्हा जी सबकी मनोकामना पूरी कर देते हैं? क्या वो मेरी भी कोई कामना पूरी करेंगे, मेरी पत्नी को ठीक कर देंगे? मगर कैसे मैं अपनी सोलह साल की बेटी को वहाँ मंदिर में अकेला छोड़ सकता हूँ, कैसे? कुछ भी समझ में नहीं आ रहा।” काफी सोचने के बाद उसने अपनी बेटी को देवदासी बनाने का निर्णय लिया। मनमोहन ने खुद से कहा, “मैं अपनी बेटी को देवदासी बना देता हूँ, यही ठीक रहेगा क्योंकि यदि मेरी पत्नी ठीक नहीं हो पाई, तो वैसे भी उसकी देखभाल अच्छी तरह से नहीं हो पाएगी।”

उसने आगे सोचा, “मैं तो कई बार घर से बाहर रहता हूँ। ऐसे में कहीं कोई ऊंच-नीच हो गई तो? वहाँ पर कान्हा जी की सेवा में रहेंगी तो कम से कम सुरक्षित तो रहेंगी।” सोचते हुए उसने अपनी बेटी मृदुला को देवदासी बना दिया। मृदुला ने पहले तो इसका विरोध किया, फिर अपना नसीब मानकर इस चीज़ को स्वीकार कर लिया। मृदुला बड़े मन से कान्हा जी की सेवा करती, उनके सामने नृत्य करती और जब वो भजन गाने लगती, तो सभी मंत्र-मुग्ध हो जाते।

मृदुला गाती थी, “मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरे ना कोई। जाके सिर मोर मुकुट, मेरो पति सोई। मेरे तो गिरधर गोपाल…।” कुछ दिनों बाद, एक रात जब तीनों उसे अपने साथ रात बिताने के लिए मना रहे थे, मगर मृदुला नहीं मानी, तो उन तीनों ने मिलकर उस लड़की के साथ ज़बरदस्ती करने की कोशिश की। मगर सरपंच जी के हाथ का धक्का उसे लगा और वो पास रखे मूसल पर जाकर गिर गई। सर से बहुत खून बह रहा था, वो लगभग मरने की अवस्था में पहुँच गई।

ठाकुर ने घबराकर कहा, “इसे वैद्य जी के पास लेकर चलते हैं।” सरपंच ने उसे रोकते हुए कहा, “नहीं नहीं, ये सबको सच बता देगी। इसे मंदिर के पीछे दफना देते हैं।” तीनों ने मिलकर उसे मंदिर के पीछे ही दफना दिया। सभी लोग अब मृदुला को भूल चुके थे। ठाकुर साहब पुरानी बातें याद कर ही रहे थे कि अचानक उनके कमरे की खिड़की पर दस्तक हुई। उन्होंने उस तरफ देखा तो वहाँ मृदुला खड़ी थी। उसके सर से बहता हुआ खून उसके चेहरे को और भी भयानक बना रहा था, जिसे देख ठाकुर साहब के हाथ-पैर फूल गए।

मृदुला ने ठंडी आवाज़ में कहा, “यहाँ आ, मेरे पास आ। मुझसे दूर मत जाओ। यही कह रहे थे ना आप उस दिन? अब आप क्यों मुझसे दूर जा रहे हैं? मेरे पास आओ।” कहते हुए वो ठाकुर साहब के करीब आने लगी। डर के कारण उनकी हालत खराब हो गई। वो डर कर पीछे हटने लगे। मृदुला जैसे-जैसे उनके करीब आ रही थी, वो पीछे-पीछे हटते हुए रेलिंग के करीब पहुँच गए। मृदुला धीरे-धीरे उनकी तरफ बढ़ रही थी। अचानक वह रेलिंग से नीचे गिर गया और सर फटने की वजह से उसकी मौत हो गई।

दूसरी तरफ, पंडित जी का बुखार भी इतना तेज़ था कि वो नींद में बड़बड़ाने लगे और उन्हें हर तरफ मृदुला ही नज़र आने लगी। फिर वो घर से भाग गए और भाग कर वो एक नदी में गिर गए। जैसे मृदुला का मंदिर से गायब होना एक रहस्य बनकर रह गया था, वैसे ही ठाकुर, सरपंच और पुजारी जी की मौत का रहस्य भी किसी की समझ में नहीं आया। उस मंदिर में आज भी रात के वक्त मृदुला के भजन की आवाज़ सुनाई देती है, “श्याम तेरी मुरली पुकारे राधा नाम, श्याम तेरी मुरली पुकारे राधा नाम… लोग करें मीरा को यूँ ही बदनाम, लोग करें मीरा को यूँ ही बदनाम।”

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