किलेनुमा दीवारों से घिरा बलदेवगढ़, एक ऐसा गाँव है जहाँ अब कोई कदम नहीं रखता। जो भी यहाँ आया, वह अपनी दुनिया में वापस न जा सका। कहा जाता है कि कुछ साल पहले, एक निडर व्यक्ति राजा बलदेव की हवेली तक पहुँचकर लौट आया था। उसकी इस हिम्मत ने गाँव वालों के मन में खजाने की उम्मीद जगा दी थी।
लेकिन उस रात, उस आदमी का पूरा परिवार एक रहस्यमय तरीके से खत्म हो गया और वह खुद इस सदमे में ऐसा खोया कि आज भी गाँव के मुख्य द्वार पर बदहवास पड़ा रहता है, मानो हर आने वाले को अंदर जाने से रोकना चाहता हो। पर होनी को कौन टाल सकता है? जिस जगह के पास सदियों से कोई नहीं भटकता था, आज अचानक शहर से वीर प्रताप नाम का एक व्यक्ति पुलिस स्टेशन में खुद को बलदेवगढ़ की संपत्ति का वारिस बताकर वहाँ निर्माण कार्य शुरू करने की बात करता है।
यह खबर जंगल की आग की तरह आसपास के सभी छोटे-मोटे गाँवों में फैल गई। दोपहर की तेज धूप में भी आसमान में शाम के से बादल मंडराने लगे थे। शहर से आया वीर प्रताप अपनी प्रेमिका के साथ वहाँ के दारोगा से अपनी योजनाओं पर चर्चा कर रहा था। दारोगा ने उसे खूब समझाया, पर वीर यह मानने को तैयार न था कि प्रेत और आत्माओं जैसा कुछ भी होता है।
उसने दारोगा को आड़े हाथ लेते हुए कहा, “देखिए दारोगा जी, ये भूत-प्रेत जैसी बातें तो आप कोर्ट में भी साबित नहीं कर पाएंगे। इसलिए बकवास की बातें मत कीजिए। मैंने सुना है कि रिटायर होने वाले आप आज भी सरकारी क्वार्टर की टपकती छत के नीचे ही रहते हैं। लगे हाथ आपके लिए भी एक डुप्लेक्स बनवा दूँ, तो कैसा रहेगा?” दारोगा ने एक पैनी मुस्कान के साथ वीर की बात पर हामी भर दी।
वीर अपनी कुर्सी से उठते हुए बोला, “तो तैयार? इस बात का ख्याल रखिएगा कि काम एक बार शुरू होने के बाद रुकना नहीं चाहिए।” वीर और दारोगा अपनी बातें कर ही रहे थे कि एक हवलदार बाहर से दौड़ता हुआ अंदर आया और घबराते हुए बोला, “साहब, गजब हो गया। गाँव वाले इधर पुलिस स्टेशन की तरफ ही आ रहे हैं। लगता है उन्हें यह बात पता चल गई है।”
सुनकर ही दारोगा के माथे पर पसीना चमकने लगा और वह बोला, “सर आप यहीं बैठिए, हम लोगों को समझाकर आते हैं।” पर वीर उसकी बात कहाँ मानने वाला था? उसने पूछा, “गाँव वाले चाहते क्या हैं?” बाहर पहुँचते ही जो नजारा सामने था, उसे देखते ही एक पल को दारोगा भी चक्कर खा गया।
सामने सैकड़ों की संख्या में गाँव वाले मौजूद थे और सभी के हाथ में मशालें थीं। उन्हें देखकर ऐसा लग रहा था जैसे सब के सिर पर खून सवार है। इससे पहले कि दारोगा कुछ कहता, वीर आगे बढ़ते हुए बोला, “गाँव वालों… मैं हूँ वीर प्रताप सिंह, बलदेवगढ़ का मौजूदा वारिस। अगर आज लोकतंत्र न होता तो मैं आप सभी का राजा होता और यकीन मानिए… एक अच्छा राजा होता।”
“लेकिन अब राजतंत्र नहीं रहा, प्रजातंत्र है। बलदेवगढ़ अभी भी मेरा ही है जिसके बीच में अगर आप दखल देंगे तो आप गिरफ्तार भी हो सकते हैं।” वीर के इतना कहते ही गाँव वाले सकपका गए। वे आपस में एक दूसरे से कानाफूसी करने लगे, “अब हम क्या करेंगे? अरे! रोके कैसे नहीं, कहीं अनामिका जाग गई तो?”
वीर की यह बात सुन गाँव वाले ऐसे फुसफुसा रहे थे जैसे वीर सच में कोई राजा हो और उसने प्रजा को खत्म करने का ऐलान कर दिया हो। गाँव वालों की इस भनभनाहट के बीच से एक बूढ़ी औरत छड़ी के सहारे चलते हुए आगे निकली और बोली, “देवगढ़ राज परिवार का वारिस है तो क्या अनामिका के बारे में नहीं जानता? सोच क्या रहा है? वही राजकुमारी अनामिका जिसके कहर से तेरा खानदान राजा से रंक बन गया।”
बात आज से 150 साल पहले की है, जहाँ बलदेव प्रताप सिंह यहाँ के राजा हुआ करते थे। उनकी दो संतानें थीं, राजकुमारी अनामिका और राजकुमार भैरव, पर वे अलग-अलग रानियों से थे। भैरव शास्त्र से लेकर शस्त्र तक हर कला में माहिर था, तो राजकुमारी अनामिका सुंदरता के साथ-साथ हर विद्या में भैरव से एक कदम आगे थी।
इसीलिए महाराज बलदेव ने राज्य की बागडोर राजकुमारी अनामिका के हाथों में देने का तय किया। पर भैरव यह बर्दाश्त नहीं कर पाया और उसने राजकुमारी के साथ-साथ महाराज बलदेव को भी खत्म कर दिया। फिर खुद महाराज बन बैठा और बलदेव की प्रजा पर अपनी मनमानी करने लगा, ना जाने कितने ही लोगों को मौत के घाट उतार दिया।
पर राजकुमारी अनामिका की आत्मा ने यह सब कुछ ज्यादा दिन नहीं चलने दिया। उसके कहर से पूरा बलदेवगढ़ काँप उठा और भैरव पागल हो गया। अनामिका से अपनी जान बचाने के लिए भैरव की माँ ने तंत्र-मंत्र की मदद से अनामिका की आत्मा को एक गुड़िया में कैदकर वहीं चौखट में ठोक दिया।
उसके बाद भैरव की माँ राजमहल छोड़ कहीं दूर चली गई। तब से पूरे बलदेवगढ़ पर अनामिका का साया है। वहाँ जाने की हिम्मत किसी की नहीं हुई। ऐसा नहीं कि यह सारी बातें वीर को पता नहीं थीं, पर आज के आधुनिक जमाने में रहकर वह ऐसी बातों पर विश्वास नहीं करता था।
इसलिए पुलिस स्टेशन के बाहर गाँव वालों के सामने खड़ा वीर उस बुढ़िया को कहता है, “दादी अम्मा, अनामिका की कहानी अच्छे से जानता हूँ। ये सब कहने-सुनने की बातें हैं – भूत, पिशाच और विक्रम बेताल। मुझे तो लगता है आप लोग मेरी संपत्ति पर कब्जा करना चाहते हैं।” इस बात पर दारोगा चापलूसी करते हुए बोला, “इसके लिए मैं आप सबको गिरफ्तार भी कर सकता हूँ।”
इस पर बुढ़िया ने कहा, “चलो, सब वापस अपने-अपने घरों में बंद हो जाओ। मरने दो इसे। विनाश काले विपरीत बुद्धि।” उनके जाते ही वीर अपनी प्रेमिका और दारोगा के साथ बलदेवगढ़ किले की तरफ निकल पड़ा और पीछे से पुलिस का बैकअप भी उनके साथ था।
किले के गेट पर उसे वही पागल आदमी दिखता है, जो उसे अंदर जाने से रोकने की कोशिश करता है। लेकिन वीर उसे उड़ाता हुआ अंदर चला जाता है और अपने बगल में बैठे दारोगा की तरफ एक भीगी मुस्कान देते हुए कहता है, “अब इतनी छोटी सी बात तो आप संभाल ही लोगे।” वीर का यह रवैया देख दारोगा के सर से पसीना टपकने लगा।
वीर की गाड़ी जैसे ही किले के अंदर जाती है, वह बड़ा दरवाजा अपने आप बंद हो जाता है। मौसम बदलने लगता है और तेज हवा भी चलने लगती है। वे गाँव के अंदर महल की तरफ काफी अंदर तक जा चुके थे। अचानक दारोगा ने देखा कि उनकी बैकअप टीम तो गायब थी। वह जोर से चिल्लाता है, “वीर, गाड़ी रोको!”
इस बार दारोगा की आवाज में सचमुच के दारोगा जैसी गंभीरता थी। तीनों गाड़ी से नीचे उतरे। दारोगा पीछे की ओर देखता है पर उसे अब बैकअप टीम की गाड़ी नहीं दिख रही थी। भागता हुआ वह थोड़ा पीछे गया तो उसने देखा कि गाड़ियाँ पलटी हुई थीं और बैकअप टीम की सरकटी लाशें पेड़ पर लटकी थीं।
उनका सिर गिद्ध अपने पंजों में फँसाए उड़ रहा था। यह नजारा देख वीर की प्रेमिका चीख पड़ी, “इन्हें इतनी बुरी तरीके से किसने मारा? हो न हो, यहाँ लुटेरे छिपे बैठे हैं।” इस बात पर दारोगा बोला, “लुटेरे नहीं, अनामिका। हमें यहाँ नहीं आना चाहिए था।”
वीर उसे कुछ कहने ही वाला था, तभी अचानक से उसे चहल-पहल की आवाज सुनाई दी। वीर आवाज का पीछा करते हुए आगे बढ़ा तो उसने जो देखा, उसे देख उसकी आँखें फटी की फटी रह गईं। वहाँ तो पूरा बाजार लगा हुआ था, किसी पुराने जमाने का बाजार… जैसे राजा-महाराजाओं के समय का।
वह उन्हें देखकर कहता है, “मुझे तो लगा ही था कि यहाँ कोई कब्जा करके बैठा है। भूत की कहानी बनाकर लोगों को यहाँ से दूर रखता है।” इतने में दो आदमी सामने से बात करते हुए आते हैं। इससे पहले कि वीर उनसे कुछ कहता, वे दोनों आदमी वीर के जिस्म से किसी आत्मा की तरह गुजर जाते हैं।
असल में ये सब उन्हीं की आत्माएँ थीं जिनकी जान आज से 150 साल पहले गई थी। आसमान में हर तरफ काले बादल उमड़ आए और जोर-जोर से गरजने लगे। दारोगा उल्टे पाँव वहाँ से भागने लगा, तभी पास के घर से एक हाथ हवा में लहराता हुआ दारोगा का पीछा करता है और उसके पाँव पकड़ते हुए अंदर खींच लेता है।
यह देखकर अब वीर का गला भी सूखने लगा था। फिर भी वह उस घर की तरफ बढ़ता है। जैसे ही वह दरवाजे के पास पहुँचता है, उसने अंदर देखा तो एक गिद्ध दारोगा के सिर पर अपने पंजे को फँसाए वीर के सामने ही उड़ गया। यह सब वीर के लिए इतना भयानक था कि वह लड़खड़ाते हुए गिर पड़ा।
तभी उसकी प्रेमिका की आवाज आती है, “वीर, बचाओ… वीर बचाओ मुझे।” वीर देखता है कि एक हाथ उसकी प्रेमिका को बालों से घसीटते हुए महल की तरफ ले जा रहा है। जब तक वह खुद को संभाल पाता, वह काफी दूर चली गई थी। वीर भी अब महल की तरफ बढ़ने लगता है।
महल में भटकते-भटकते वह उसी चौखट पर पहुँच जाता है जहाँ गुड़िया के अंदर अनामिका की आत्मा कैद रहती है। वीर के मन में न जाने क्या चल रहा था। चौखट से हवा तेज हो जाती है और चारों तरफ धूल ही धूल उड़ने लगती है। फिर वही गुड़िया एक लड़की का आकार ले लेती है और राजकुमारी अनामिका में बदलकर चीखने लगती है।
अनामिका कहती है, “150 साल इंतजार किया है इस दिन का मैंने और देखो आज कौन आया है… इस राजघराने का वारिस? 150 साल से कुछ नहीं बदला, वो भी दरिंदा था, वैसे तू भी दरिंदा है। अपने लालच के लिए किसी को भी रास्ते से हटा सकता है। यह सब कुछ आज ही खत्म होगा, यहीं तेरे साथ।” इतना कहते ही अनामिका उसे गले से पकड़कर उठा लेती है।
वीर चीखते रह जाता है, “मुझे छोड़ दो, मुझे छोड़ दो।” अनामिका ने उसे ऐसे जकड़ा था कि उसका पूरा शरीर एक गुड्डे में बदलने लगा, जिसे अनामिका ने वहाँ पर लगे एक कीलनुमा रॉड में धँसा दिया। आज भी वीर गुड्डा बनकर उसी महल में लटका है और उसके बगल में उसकी प्रेमिका भी।
कहते हैं… आज भी प्रेत आत्माएँ वहाँ मौजूद हैं पर लोगों को कोई नुकसान नहीं पहुँचातीं। सरकार ने भी इस जगह को अब पर्यटन स्थल बना दिया है, जहाँ लोग अब घूमने आते हैं और उस चहल-पहल की आवाज भी महसूस करते हैं। पर आज भी रात में आने की हिम्मत कोई नहीं करता है क्योंकि अनामिका आज भी यहीं है।