कालीबाड़ी गाँव में हर तीन साल पर काल भैरवी की एक विशेष आरती होती थी। यह एक प्राचीन परंपरा थी, जिसका पालन न करने पर गाँव में भयानक प्राकृतिक आपदाएँ आती थीं। जंगल के बीचोबीच, काल भैरव की विशाल और डरावनी मूर्ति के सामने, आरती की लौ ऊँची उठ रही थी। ढोल, ताशे और मंजीरे की आवाज़ें वातावरण में गूँज रही थीं। पूरा गाँव श्रद्धा और भय के साथ इस अनुष्ठान में शामिल था। सबकी निगाहें मूर्ति पर टिकी थीं, उनके हाथ भक्ति में जुड़े हुए थे। तभी अचानक, आरती की लपटें बेतहाशा तेज़ हो गईं और मूर्ति की आँखें खून-सी लाल हो उठीं। पंडित भय से काँप उठा। उसके हाथों से आरती की थाली ज़मीन पर जा गिरी, और उसने चीखते हुए कहा, “कहर!” उसी पल एक डरावनी आवाज़ गूँज उठी, “ऐसे कोरा ना जाबो… ऐसे कोरा ना जाबो।”
गाँव के नियम बहुत स्पष्ट थे: हर व्यक्ति को पूरी आरती में शामिल होना अनिवार्य था, अन्यथा उसकी आयु भी पूरी नहीं होती थी। सभी गाँववासी इस नियम का पालन करते हुए अपनी आस्था प्रकट कर रहे थे। तभी भीड़ के बीच खड़े एक युवक, सुजीत का फोन बजा। उसने फोन उठाया, “क्या… आज ही? ठीक है।” कहते हुए उसने फोन काट दिया और एक अजीब सी मुस्कुराहट के साथ भीड़ से निकलकर अपने घर की ओर चल दिया। सुजीत के जाते ही, काल भैरवी की आँखें पूरी तरह से लाल हो गईं, और आरती की लपटें इतनी तेज़ हो गईं कि पंडित उन्हें संभाल नहीं पाया। थाली ज़मीन पर गिरते ही उसने चीखते हुए घोषणा की, “विनाश… महाविनाश! अब इस गाँव को कोई नहीं बचा सकता। काल भैरव ने हमारी आरती स्वीकार नहीं की। किसी पापी ने आरती में विघ्न डाला है! कौन है वह जिसने पूरे गाँव की जान दाँव पर लगा दी? कौन है जो काल का ग्रास बनने को आतुर है?”
पंडित की भयानक चेतावनी सुनकर, सभी गाँववाले एक-दूसरे को डरी हुई नज़रों से देखने लगे। अगले ही पल, सबकी साँसें थम गईं, क्योंकि काल भैरवी की मूर्ति की आँखों से आग की लपटें निकलने लगी थीं। इस भयावह दृश्य को देखकर, गाँववाले जान बचाने के लिए भागने लगे, चिल्लाते हुए, “भागो! काल भैरव अपने रौद्र रूप में आ गए हैं! भागो, जल्दी भागो!” वहीं दूसरी ओर, सुजीत, जिसने आरती बीच में छोड़ी थी, अपने घर में बैठकर बेफिक्री से टीवी देख रहा था। तभी उसकी बहन, सरला, उसके लिए खाना लेकर कमरे में आई। उसने चिंता भरे स्वर में कहा, “लो सुजीत, तुम खाना खा लो। मुझे भूख नहीं है। पता नहीं किस बददिमाग ने पूरे गाँव को संकट में डाल दिया है? न जाने अब क्या होगा!”
सरला लगातार बोल रही थी, लेकिन सुजीत का सारा ध्यान टीवी पर चल रहे क्रिकेट मैच में था। इस पर झुँझलाकर सरला ने टीवी बंद कर दिया और गुस्से से बोली, “क्रिकेट के अलावा तुम्हें कुछ ध्यान नहीं रहता, है न? बंद करो यह टीवी, चलो खाना खाओ।” इतना कहकर वह सुजीत की ओर बढ़ी। सुजीत सहमा हुआ, सिर झुकाए बैठा था। अचानक, टीवी फिर से चालू हो गया, लेकिन इस बार उसमें क्रिकेट मैच नहीं, बल्कि काल भैरवी की वही डरावनी मूर्ति दिखाई दे रही थी, जिसकी आँखों से आग निकल रही थी। सरला चीख पड़ी, “सुजीत… सुजीत! भागो, भागो! टीवी में आग लग गई है!” लेकिन सुजीत अपनी जगह से टस से मस नहीं हुआ। टीवी से निकलती आग की लपटें धीरे-धीरे उसी की ओर बढ़ रही थीं।
सरला ने सुजीत को बचाने के लिए जैसे ही उसे छुआ, वह ठंडी और जड़ महसूस हुआ। वह लगातार उसका नाम पुकारती रही, “सुजीत… सुजीत, तुम्हें क्या हुआ है?” तभी उसे एहसास हुआ कि सुजीत ने ही आरती बीच में छोड़ी होगी। “ज़रूर इसने आरती पूरी नहीं की और मैच देखने वापस आ गया। काल भैरवी इसे नहीं छोड़ेगी!” वह घबरा गई, सोचने लगी, “क्या करूँ, क्या करूँ?” उसे याद आया कि पंडित जी ने हवन की विभूति के बारे में बताया था। उसने तुरंत विभूति लाकर सुजीत के माथे पर लगाई। विभूति के स्पर्श से सुजीत तुरंत बेहोश होकर गिर पड़ा। कुछ देर बाद जब उसे होश आया, तो वह हैरान था। “सरला दीदी, अरे! मैं नीचे कैसे सो गया? आपने टीवी बंद क्यों कर दिया? कितना शानदार मैच आ रहा था?” सरला ने उसे पूछा, “क्या तुम्हें कुछ याद नहीं है?” सुजीत बोला, “कैसे याद नहीं रहेगा? हम मैच जीतने ही वाले हैं! क्रीज पर अपना माही ही है!”
सरला ने मन ही मन सोचा, “इसे कुछ भी याद नहीं है। मुझे पंडित जी को सारी बात बतानी चाहिए।” लेकिन फिर उसे गाँव के कठोर नियम याद आए: जो भी आरती पूरी नहीं करता, उसे गाँव छोड़कर जाना पड़ता है। “नहीं, किसी को कुछ न बताने में ही भलाई है। और अब तो… अब तो सुजीत भी ठीक है।” उसने खुद को दिलासा दी। अगली रात, पूरे गाँव पर मौत-सी शांति छाई हुई थी। सरला अपने कमरे में चैन से सो रही थी कि अचानक एक भयानक चीख से उसकी नींद टूट गई। उसे किसी अनहोनी का गहरा अहसास हुआ। डरे हुए मन से वह सुजीत के कमरे में गई, और जो देखा, उसे देखकर उसका पूरा शरीर काँप उठा। सुजीत अपने हाथों के बल चल रहा था, और उसके पैरों पर दो जलते हुए दीये रखे थे।
सुजीत ने सरला को देखते ही दर्द से चीखा, “बचाओ दीदी, मैं जल रहा हूँ! बहुत दर्द हो रहा है, दीदी, बचाओ!” सरला ने तुरंत उसके पैरों से जलते हुए दीये हटाए। दीये हटते ही, अगले ही पल सुजीत अपने पैरों पर खड़ा हो गया, लेकिन उसका चेहरा अब पहचानना मुश्किल था। वह भयानक रूप ले चुका था, जिसे देखकर सरला की आँखें डबडबा गईं। सुजीत सरला से कुछ कहने की कोशिश कर रहा था, पर शब्दों की जगह उसके मुँह से केवल एक डरावनी आवाज़ निकली, “इसे कोरा ना जाबो… इसे कोरा ना जाबो।” इस विचित्र आवाज़ के साथ ही, सुजीत का शरीर बदलने लगा। उसका आधा हिस्सा एक औरत के रूप में बदल गया था, जिसके हाथ लगातार बड़े होते जा रहे थे।
सरला उस बदल रहे शरीर के भयानक हाथों से बचते हुए इधर-उधर भाग रही थी, लेकिन उसकी हर कोशिश नाकाम हो रही थी। वह चिल्लाई, “बचाओ मुझे, कोई मुझे बचाओ!” सुजीत के शरीर से निकली वह स्त्री-स्वर की आवाज़ फिर गूँजी, “इसे कोरा ना जाबो… इसे कोरा ना जाबो।” सरला की चीखें सुनकर पंडित उसके घर आ गए। पंडित ने उस डरावनी आवाज़ को पहचान लिया। “अरे! यह तो काल भैरव की आवाज़ है! ‘इसे कोरा ना जाबो’… मतलब इसे कोई नहीं बचा सकता।” उन्होंने चिंतित होकर कहा, “हे भगवान! अब इसके बाद पूरा गाँव संकट में होगा। मुझे कुछ करना ही होगा!” पंडित ने तुरंत विभूति लगाकर सुजीत को शांत किया, और वह फिर से बेहोश होकर ज़मीन पर गिर पड़ा। सरला थोड़ी देर के लिए आज़ाद हो गई थी। पंडित ने गंभीर स्वर में कहा, “तुम लोगों ने काली के काल को आमंत्रण दिया है। अब बस अंधेरा होगा, हर तरफ अंधेरा होगा। कोई नहीं बचेगा… कोई नहीं!” सरला रोते हुए बोली, “पंडित जी, मेरे भाई और मेरे गाँव को बचाने का कोई तो उपाय होगा?” पंडित ने उत्तर दिया, “हाँ, है, पर बहुत मुश्किल। सुजीत को माँ काली की प्रतिमा के चारों ओर घूमकर कई महीनों तक आरती करनी होगी। चाहे कड़कड़ाती धूप हो या भयंकर तूफान, परिक्रमा रुकनी नहीं चाहिए, तभी काल भैरव प्रसन्न होंगे। उनके प्रसन्न होने पर, वह आरती को प्रसाद के रूप में ग्रहण करेंगी। वह प्रसाद खाते ही सुजीत ठीक हो जाएगा।”
पंडित अभी सरला को सारी बातें बता ही रहे थे कि सुजीत को भी होश आ चुका था। उसने दृढ़ता से पंडित से कहा, “मैं करूँगा यह परिक्रमा।” अगले दिन, सुजीत ने आरती की थाली लेकर काल भैरव की प्रतिमा की परिक्रमा शुरू कर दी। आरती की लपटें तेज़ होती जा रही थीं, और हर कदम के साथ सुजीत का रूप बदलता। एक पल वह सामान्य पुरुष होता, तो अगले ही पल काल भैरवी का डरावना रूप ले लेता और सबसे कहता, “इसे कोरा ना जाबो… इसे कोरा ना जाबो।” सुजीत की यह भयानक आवाज़ पूरे गाँव में गूँज रही थी, जिससे गाँववाले डरने लगे थे। उसकी आवाज़ लगातार सुनाई दे रही थी, “इसे कोरा ना जाबो… इसे कोरा ना जाबो।” डरे हुए गाँववाले आपस में कहने लगे, “चलो, सभी काल भैरव के पास चलो। वे बहुत क्रोधित हैं। जल्दी चलो, उनसे माफी की भीख माँगते हैं।” सभी गाँववाले दौड़ते हुए काल भैरवी की प्रतिमा के सामने हाथ जोड़े, भयभीत खड़े थे। सुजीत परिक्रमा करता रहा और हर कदम पर वही बात दोहराता रहा।
सुजीत अभी भी “इसे कोरा ना जाबो…” बोल ही रहा था कि तभी काल भैरवी की आँखों से आग की लपटें निकलीं और सीधे सुजीत पर पड़ीं। अगले ही पल, सुजीत भयंकर रूप से जलने लगा और चीखते हुए राख में बदल गया। यह भयावह दृश्य देखकर सभी गाँववाले भयभीत हो गए। अपने भाई को बचाने के लिए सरला उसकी ओर दौड़ रही थी, तभी पंडित ने उसका हाथ पकड़कर उसे रोक दिया और गंभीर स्वर में कहा, “यही गाँव के हित में है, बेटी।” जब तक सरला कुछ समझ पाती या कुछ कर पाती, सुजीत की चीखें शांत हो चुकी थीं और वह पूरी तरह जलकर राख हो गया था। गाँववालों ने इस घटना को एक आवश्यक बलि समझकर अपने मन को शांत किया, लेकिन एक बहन से उसका भाई हमेशा के लिए दूर हो चुका था।