यह घटना आज से लगभग दस साल पहले की है, जब मैं लक्समबर्ग के एक पुराने अस्पताल में नर्स के तौर पर काम करती थी। वह ऐसी जगह थी जहाँ ज़िंदगी अपनी आखिरी साँसें गिनती थी। ज़्यादातर मरीज़ बिस्तर पर लेटे, नींद और बेहोशी के बीच भटकते हुए, अपने अंतिम पड़ाव का इंतज़ार कर रहे होते थे।
उस रात मेरी ड्यूटी थी, और मेरे साथ मेरी सबसे अच्छी दोस्त और सहकर्मी स्टेफ़नी भी थी। हम दोनों को एक साथ काम करना बहुत पसंद था, हम किसी वीरान पड़े किले में दो खामोश पहरेदारों की तरह थे। ज़रा सोचिए, पूरे अस्पताल में लगभग 120 मरीज़ और केवल हम दो स्वस्थ लोग। कुछ मरीज़ तो अपना काम खुद कर लेते थे, लेकिन फिर भी वह इमारत, वह रात… कुछ तो अजीब था, कुछ तो अनकहा।
रात के तीन बजे से लेकर सुबह साढ़े पाँच बजे तक का समय हमारा सबसे महत्वपूर्ण होता था, जब हमें सभी मरीज़ों के डायपर बदलने होते थे, दवाएँ देनी होती थीं और पानी पिलाना होता था। उस रात दो वार्ड बाकी थे। हम दूसरे वार्ड में जैसे ही घुसे, एक अजीब सी आवाज़ सुनाई दी। एक औरत की तेज़ और साफ़ आवाज़, लेकिन उसमें कुछ रुकावट सी थी, जैसे कोई पुराना रेडियो ठीक से ट्यून न हो रहा हो। मगर जो बोला जा रहा था, वह समझ नहीं आ रहा था।
मैंने फुसफुसाते हुए स्टेफ़नी से कहा, “ज़रा सुनो… कुछ अजीब लग रहा है।” उसने कान लगाया और बोली, “हाँ, अजीब तो है… ऐसा लग रहा है जैसे किसी ने टीवी या रेडियो चला दिया हो।” मैंने धीमी आवाज़ में कहा, “पर स्टेफ़नी, यहाँ कौन चलाएगा? ये मरीज़ तो हिल भी नहीं सकते… और ये आवाज़ किसी बंद कमरे से नहीं आ रही, यह तो बिलकुल पास से आ रही है… जैसे कोई हमारे ठीक पीछे खड़ा हो।”
उसने मुझे देखा, उसका चेहरा थोड़ा गंभीर और थोड़ा डरा हुआ था। वह बोली, “तुम ठीक कह रही हो… लेकिन चलो, पहले काम पूरा कर लें।” हम आगे बढ़ते गए, हमारे कान उस आवाज़ पर ही टिके थे… और तभी, वह आवाज़ अचानक बंद हो गई। एक पल के लिए मैं ठिठक गई। मन में आया, शायद मैं बहुत थक गई हूँ… शायद यह सब बस मेरे दिमाग का वहम है।
हम अपने अगले मरीज़ के पास पहुँचे। उसकी हालत बहुत खराब थी। पूरा बिस्तर, उसके कपड़े, यहाँ तक कि उसका शरीर भी गीले मल से सना हुआ था। हमें पूरा बिस्तर साफ़ करना पड़ा, उसे नहलाना पड़ा और नए कपड़े पहनाने पड़े। यह सब करते-करते हमें कई बार बाथरूम और बेड के बीच भागना पड़ा। आख़िर में स्टेफ़नी ने कहा कि वह मरीज़ को नई शर्ट पहनाएगी, तो मैंने सारे गंदे कपड़े और चादरें बाहर ले जाकर हॉलबे में रखी हमारी सप्लाई ट्रॉली के पास जमा करनी शुरू कर दीं। हमें नई चादरें, कंबल, स्किन क्रीम, तौलिए—बहुत कुछ चाहिए था, इसलिए दरवाज़ा खुला ही छोड़ दिया ताकि चीज़ें आसानी से लाई जा सकें।
मेरी पीठ स्टेफ़नी की तरफ़ थी, लेकिन उसकी आवाज़ अभी भी सुनाई दे रही थी—वह मरीज़ से कुछ कह रही थी, उसे धीरे-धीरे सीधा कर रही थी। जैसे ही मैं बाहर निकली, एक गंदी चादर मेरे हाथ से छूटकर ज़मीन पर गिर पड़ी। मैं उसे उठाने के लिए झुकी… और उसी पल मेरी नज़र खुले दरवाज़े से होकर हॉलबे पर पड़ी।
जो मैंने देखा, उसे आज तक मैं भूल नहीं पाई हूँ। एक बूढ़ी, छोटी सी काया वाली, सफ़ेद नाइटी में लिपटी हुई आकृति हॉलबे में बिना किसी आवाज़ के आगे बढ़ रही थी। उसका शरीर ज़मीन से कुछ इंच ऊपर था—वह चल नहीं रही थी, बल्कि हवा में तैर रही थी… एकदम खामोश। मेरा पहला विचार यही आया कि क्या स्टेफ़नी बाहर आ गई है? क्योंकि नर्सों की यूनिफ़ॉर्म भी तो सफ़ेद होती है। पर फिर दिमाग ने तुरंत जवाब दिया, नहीं, अगर स्टेफ़नी बाहर आती, तो मैं उसे ज़रूर देखती ना?
मैं वहीं जम गई। मेरा शरीर हिल नहीं पा रहा था… जैसे समय वहीं रुक गया हो। यह सब कुछ सिर्फ़ कुछ ही सेकंड में हुआ। तभी पीछे से स्टेफ़नी की आवाज़ आई, वह हँसते हुए, बिलकुल सामान्य लहज़े में बोली, “अरे, क्या हो रहा है? पूरी रात ये गंदी चादरें ही उठाए घूमने का प्लान है क्या?”
मैं उछल पड़ी। उसकी ओर मुड़ी और कांपती हुई आवाज़ में बोली, “स्टेफ़… तुम तो बाहर थी! मैंने तुम्हें हॉलबे में चलते देखा…!” उसने अपनी भौंहें चढ़ाईं और बोली, “नहीं रे, मैं तो मरीज़ को तैयार कर रही थी, याद है? तुझे क्या हो गया है? तेरा चेहरा तो बिलकुल सफ़ेद हो गया है… सब ठीक है ना? मितली तो नहीं आ रही?”
मेरे हाथ से सब कुछ छूट गया… चादरें, कपड़े, सब और मैं पागलों की तरह भागती हुई हॉलबे में निकल गई। वह औरत… उसका साया अब भी वहाँ था, दीवार की ओर बढ़ता हुआ। और फिर एक पल में, वह दीवार के आर-पार चली गई… जैसे कभी वहाँ थी ही नहीं। स्टेफ़नी पीछे-पीछे दौड़ कर आई। उसने मुझे वहीं खड़ा पाया। मैं काँपती हुई, पूरे शरीर पर रोंगटे खड़े किए, जैसे किसी बर्फीली हवाओं वाले कमरे में खड़ी हूँ। बाहर गर्मियों की तपिश थी, लेकिन उस हॉलबे में… कसम से, ऐसा लग रहा था जैसे किसी ने फ़्रीज़ खोल कर छोड़ दिया हो।
स्टेफ़नी ने चौंक कर कहा, “हे भगवान! यहाँ इतनी ठंड अचानक क्यों हो गई?” उसे वह आकृति नहीं दिखी थी। और फिर न जाने क्यों, शायद उस पल की कोई अजीब सी सच्चाई थी, मैं बोल पड़ी, “हमें नीचे जाना होगा… मिसेज़ ज़ेड अब इस दुनिया में नहीं रहीं।”
वह हक्की-बक्की रह गई। “क्या? तुम कैसे कह सकती हो? अभी थोड़ी देर पहले ही तो देखा था, वह सो रही थीं।” मैंने उसकी आँखों में देखते हुए कहा, “स्टेफ़… मैंने उनकी आत्मा को देखा है। वह अभी-अभी इस हॉलबे से गुज़री है।”
स्टेफ़नी, अब भी उलझन में थी, लेकिन मेरे साथ नीचे चल पड़ी। जब हम मिसेज़ ज़ेड के कमरे में पहुँचे, वहाँ अजीब सी शांति थी… एक शांतिपूर्ण सन्नाटा। और वह सचमुच जा चुकी थीं। उनका शरीर अब भी गर्म था, जैसे कुछ ही पलों पहले उन्होंने अपनी अंतिम साँस ली हो। हमने तुरंत मेडिकल स्टाफ़ को बुलाया ताकि उनकी मृत्यु की पुष्टि की जा सके। शिफ़्ट ख़त्म होते-होते हमने उन्हें अच्छे से धोया और एक सुंदर सी ड्रेस पहनाई। मैं पूरी प्रक्रिया के दौरान एक शब्द नहीं बोली। लेकिन स्टेफ़नी… वह चुप नहीं बैठी। बार-बार मुझसे सवाल पूछती रही, जैसे उसे किसी भी तरह समझना था कि यह सब हुआ कैसे।
घर पहुँचते ही मैं अपने बिस्तर पर लेट गई। अब डर नहीं लग रहा था—बस हैरानी थी… एक गहरी, शांतिपूर्ण हैरानी। कुछ घंटे सोई… और सपने में मिसेज़ ज़ेड आईं। वह मेरी ओर आ रही थीं—जैसे अपनी जवानी के दिनों में हों, बिलकुल स्वस्थ, मुस्कुराती हुईं। उनके चारों ओर हल्की सफ़ेद रोशनी थी—शांत और सुकून भरी। उन्होंने मुझे देखा और कहा, “धन्यवाद, बेटा… इतने सालों तक मेरा ख़्याल रखने के लिए। अब मुझे जाना है।”
बहुत बाद में, जब मैंने उस रात की घटनाओं पर गहराई से सोचना शुरू किया… तब जाकर एक बात समझ में आई—शुरुआत में जो अजीब सी ‘रेडियो’ जैसी आवाज़ हमने सुनी थी ना… वह असल में एक EVP थी (इलेक्ट्रॉनिक वॉयस फ़िनॉमिनन), मिसेज़ ज़ेड की आत्मा की आवाज़।