सचिन अभी भी उस बात को समझ नहीं पा रहा था — कैसे एक लड़की का नाम, एक निर्धारित जगह, और अपने दोस्त जोगी के शब्द इतनी साफ बैठ गए थे उसके दिमाग में। वह लड़की, सुनैना, जिसके बारे में रोज बात करता था — आंखों में झमकता प्यार, छोटी सी खुशी की आवाज, जैसे वह जिंदा थी, बस उसका चेहरा गायब हो गया था। कुछ दिन पहले तक वह मिलना चाहती थी — लेकिन अब वह खो गई थी, और न आती थी, न लौटती थी।
जोगी उसे बार-बार शांत करने की कोशिश कर रहा था, समझाने की जुगत में गिरा दिया था — क्या आपने गलत जगह का पता लगाया है? क्या किसी ने आपको गलत बातें बताई हैं? पर सचिन देखता था, आंखों में वही आंखें उसके सपनों में लौट आती थीं। उसने एक छोटी सी गुमनाम एक ताजा फोटो भी तैयार की थी — लेकिन कोई ने उसे पहचाना नहीं, न उस मौहल्ले में, न किसी पड़ोसी के बीच में।
रात को जब एक बार वह छत पर गया, तो जैसे न होने वाली बात हो रही थी। धीमी सी पड़ी हवा में, टंकी के पास कोई लंबी छाया लगती थी। उसने अपनी आंखें मलीं, मुड़ा — नहीं, कोई नहीं था। लेकिन फिर धीरे से आंसू की आवाज सुनाई दी — ऐसी कोमल, ऐसी दर्द भरी कि दिल टूट गया। फिर वह घबराया, आवाज लगाई — कौन है वहां? लेकिन कुछ नहीं हुआ। सिर्फ़ चुप्पी ने उसे घेर लिया।
फिर वह नीचे लौटा, छत का दरवाजा बंद करने ही वाला था, तभी उसकी आंखों में फिर वह छाया — एक लड़की खड़ी थी, पर बस उसके पैरों से खून बह रहा था। गहरे लाल धब्बे छत को छू रहे थे, और उसके तराशे हुए गालों पर आंसू, जैसे कोई निकल गई अंतिम राह।
“सचिन…” उसने नरमी से कहा। और जैसे दिल में सांस रुक गई — वह उस लड़की में दुर्भाग्यपूर्ण अस्तित्व की अमर आहट भी महसूस कर रहा था। “मैं मर चुकी हूं… अब तुम्हें छोड़ देना। मैं तुमसे प्यार करती थी… लेकिन अब रुक जाओ।”
सचिन ने बुलंदी को छूने के लिए सांस भरी, तभी जोगी ने उसके पैर को पकड़ लिया। पीछे मुड़कर देखा — उसके माता-पिता, छोटा भाई, सब वहीं खड़े थे। उस लड़की के नाम पर मायूसी भरी चुप्पी थी।
फिर जोगी बोला — उसे रजिया कहते थे। बस पन्द्रह साल पहले उसके प्रेमी, जो आखिरकार उसके साथ नहीं रहा, उसे मार डाला था। रात को छत में, उसे वहीं आत्मा ने गायब कर दिया। और फिर से अगले विजन के लिए उसे आकर्षित करती थी — जो लोग प्यार में घूमे होते थे, वे ताकत के बाहर चले जाते थे।
आँखें बंद करके सचिन भाई को देखा — उसने बड़ा नफरत ख़त्म कर दी। जीत नहीं है जो लड़की से डर गया, बल्कि अपने मन के सामने खड़ा आदमी जो खुद आत्महत्या के किनारे से लौट आया था।
उसे अब समझ आया — आम शाम जैसी हर रात फिर से बोली गई। और फिर जो आवाज उसके कानों में आई… वह आवाज अब नहीं थी — लेकिन वह जानता था, कि वह हर दिन वैसे ही चलती रहेगी… बस उसने नहीं बनने दिया।