गुरुग्राम के एक पुराने स्कूल की यह ऐसी कहानी है जो बरसों से दबी रही। आखिर क्यों कोई बोला नहीं? क्या कारण था? या किसी ने उन्हें चुप रहने को कहा था?
वर्षा, एक चंचल और जीवंत लड़की, अपने दोस्तों के साथ खूब खेलती-कूदती थी। 14 साल की वर्षा गुरुग्राम के यू-ब्लॉक में अपने माता-पिता और बड़ी बहन अंकिता के साथ रहती थी। अंकिता कॉलेज में ग्रेजुएशन कर रही थी। वर्षा के माता-पिता साधारण लोग थे जो बच्चों को अच्छी शिक्षा देने के लिए दिन-रात मेहनत करते थे। वर्षा को स्कूल जाना बहुत पसंद था और वह 10वीं कक्षा में पढ़ रही थी।
उनके घर के पास एक झूला पार्क था, जिसके बगल में एक बड़ा मैदान भी था। उस पार्क से सटा हुआ एक बंद स्कूल था, जो न जाने कब से वीरान पड़ा था। इलाके के बड़े-बुजुर्ग हमेशा बच्चों को उस स्कूल के पास भी जाने से रोकते थे।
एक शाम वर्षा अपने दोस्तों के साथ पार्क में क्रिकेट खेल रही थी। उसने एक जोरदार छक्का मारा और गेंद उड़कर सीधे उस बंद स्कूल की टूटी खिड़की से अंदर जा गिरी।
राहुल नाम के एक लड़के ने कहा, – “मैं गेंद ले आता हूँ, तुम लोग यहीं रुकना।”
पर सबने उसे रोका। एक दोस्त ने कहा, – “राहुल, गेंद तो और मिल जाएगी पर वहाँ मत जाओ, अंदर जाना मना है।”
राहुल नहीं माना क्योंकि वह गेंद उसी की थी और घर पर डाँट से बचने के लिए वह जिद पर अड़ गया और अंदर चला गया। वर्षा भी थोड़ी हिम्मत करके स्कूल के गेट तक पहुँची, पर अंदर नहीं गई। वह बाहर खड़ी रही ताकि राहुल अकेला महसूस न करे।
राहुल धीरे-धीरे स्कूल के अंदर बढ़ा। उसने देखा कि अंदर इतनी धूल और सूखे पत्ते भरे थे, जैसे सालों से कोई आया ही न हो। गेंद पहली मंजिल की खिड़की से अंदर गिरी थी। वह कुछ कदम चला ही था कि अचानक एक कौवा उड़ता हुआ उसकी तरफ आया, बगल से छूकर बाहर निकल गया और वर्षा के पास जाकर बैठ गया। वह वर्षा को घूरने लगा।
वर्षा ने उसे – “शू-शू” कहकर भगाने की कोशिश की, पर वह टस से मस नहीं हुआ। डरकर वर्षा ने एक पेड़ की डंडी उठाई और उसकी तरफ फेंकी। कौवा उड़कर उसके सिर के ऊपर बनी एक छोटी सी खिड़की पर जा बैठा। वर्षा बहुत डर गई और वहाँ से हटकर दूर खड़ी हो गई। उसके बाकी दोस्त भी थोड़ी दूरी पर खड़े होकर उन पर नज़र रख रहे थे।
अंदर, राहुल ने थोड़ी हिम्मत और जुटाई और सीढ़ियों तक पहुँच गया। अंदर अंधेरा था क्योंकि रोशनी ठीक से नहीं आ रही थी। वहाँ कई क्लासरूम बने थे। उसने देखा कि गेंद खिड़की के पास ही गिरी है। वह भागकर गेंद उठाने गया।
अचानक, गेंद अपने आप घूमकर क्लासरूम के अंदर चली गई। यह देखकर राहुल के होश उड़ गए। वह हकलाया, – “ये-ये कैसे अपने आप अंदर चली गई?”
खुद को दिलासा देते हुए वह बुदबुदाया, – “हवा भी तो हो सकती है, क्या राहुल, तू फालतू में डरता है?” और खुद से बातें करते हुए क्लासरूम में घुसने लगा ताकि उसे और डर न लगे। उसका मानना था कि ऐसे में खुद से बातें करनी चाहिए ताकि कुछ और सुनाई या महसूस न हो।
राहुल ने सोचा, – “अगर आज मैं यह गेंद ले आता हूँ, तो मैं तो पॉपुलर हो जाऊँगा, और सभी मुझे इम्पोर्टेंस देंगे और मेरी बातें मानेंगे।”
यह सोचते ही राहुल निडर हो गया और क्लासरूम के अंदर जाकर गेंद ढूंढ ली। वह बेंच के बीच में थी। वह गेंद उठाने के लिए झुका कि अचानक उसे नीचे से एक काले, जले हुए पैर दिखे। राहुल अचानक से उठकर खड़ा हो गया, मानो उसके हाथ-पैर ठंडे पड़ गए हों।
खड़े होकर देखा तो वहाँ कुछ नहीं था। उसने जल्दी से झुककर गेंद झट से उठा ली। फिर भी, सब शांत था। राहुल ने फिर खुद को समझाने की कोशिश की, – “वहम ही होगा, वरना जिसके पैर थे वह सामने आता। राहुल, तू बहुत डरता है।”
यह बोलते ही वह बाहर निकलने को मुड़ा कि पीछे से किसी की आहट सुनाई दी। राहुल के रोंगटे खड़े हो गए और वह बिना मुड़े भागा। तभी अचानक क्लासरूम का दरवाजा बंद हो गया। राहुल जोर से चिल्लाया, पर उसकी आवाज बाहर किसी को सुनाई नहीं दी। वह जोर-जोर से दरवाजा पीटने लगा और बोला, – “मुझे जाने दो, मैं तो बस गेंद लेने आया था, अब कभी नहीं आऊँगा।”
पीछे से एक धीमी, औरत की आवाज आई, – “बरसों से यहाँ कोई नहीं आया। आज देखो, ताजा खून और मुलायम चमड़ी खुद चलकर आ गई।”
राहुल जोर से चिल्लाया, – “कोई बचाओ मुझे!”
फिर उस आवाज ने कहा, – “यहाँ कोई नहीं आएगा क्योंकि इस बिल्डिंग के बाहर तो आवाज भी नहीं जाती।”
यह सुनते ही मानो राहुल की आत्मा बाहर आ गई हो। उसने हिम्मत करके मुड़ा। उसने देखा एक औरत, पूरी जली हुई, उससे काफी दूर पीछे बैठी थी। वह इतनी भयानक दिख रही थी कि उसे देखते ही राहुल बेहोश हो गया।
तीस मिनट हो गए थे। अब बाहर सबको चिंता होने लगी थी। वर्षा भी डरने लगी थी। सबने मिलकर अंदर जाने का प्लान बनाया। जैसे ही वे अंदर जाने को हुए, उन्होंने देखा राहुल गेंद लेकर और गेंद की तरफ देखते हुए धीरे-धीरे कदमों से बाहर आ रहा था।
वर्षा ने कहा, – “राहुल, हम बहुत डर गए थे। हम अंदर ही आ रहे थे कि तुम बाहर आ गए।”
राहुल कुछ न बोला और चुपचाप घर चला गया। सबको लगा कि वह डर गया होगा इसलिए चला गया। तभी सब लोग भी घर चले गए। कई दिन बीत गए, राहुल खेलने नहीं आया और न ही स्कूल आया। वर्षा को काफी चिंता होने लगी तो उसने उसके घर फोन किया। फोन उसकी माँ ने उठाया।
राहुल की माँ – “हेलो, कौन बोल रहा है?”
वर्षा – “नमस्ते आंटी, मैं वर्षा बोल रही हूँ। मैं राहुल की दोस्त हूँ।”
राहुल की माँ सोचती हुई बोली, – “व-वर्षा, हाँ बोलो क्या हुआ?”
वर्षा – “आंटी, राहुल कहाँ है? क्या आप उससे मेरी बात कराओगी?”
राहुल की माँ काँपती हुई आवाज में बोली, – “व-वो उसकी तबीयत ठीक नहीं है, तो अभी मैं बात नहीं करा सकती।”
वर्षा – “आंटी कोई बात नहीं, पर काफी दिनों से न स्कूल आ रहा है और न ही पार्क, क्यों?”
राहुल की माँ अचानक गुस्से में बोली, – “एक बार बोल दिया न उसकी तबीयत ठीक नहीं है, जब ठीक होगी आ जाएगा।” और फोन काट दिया।
वर्षा यह सुनते ही सोच में पड़ गई, – “आखिर ऐसा भी क्या हो गया जो आंटी इतना घबराई हुई थीं?”
अगले दिन, वर्षा पार्क गई और पूरी शाम वहीं इंतजार कर रही थी कि क्या पता राहुल घूमने ही सही पर पार्क आ जाए, क्योंकि राहुल हमेशा पार्क आता था, एक दिन भी मिस नहीं करता था, भले ही कुछ देर के लिए आए। पर वह नहीं आया। वर्षा ने सोचा एक बार उसके घर जाकर मिल लेना चाहिए, – “क्या पता राहुल की तबीयत ज्यादा खराब हो?” क्योंकि राहुल का घर ज्यादा दूर नहीं था।
वह राहुल के घर पहुँची और उसने दरवाजा खटखटाया, “नॉक-नॉक”। राहुल की माँ ने दरवाजा खोला, और वर्षा को देखते ही डर गई। वर्षा ने उनकी तरफ देखा और बोली, – “आंटी, मैं राहुल से मिलने आई हूँ और उसके लिए चॉकलेट्स भी लाई हूँ।”
राहुल की माँ ने चॉकलेट की तरफ देखा। वह राहुल की पसंदीदा चॉकलेट लाई थी, पर उसकी माँ के चेहरे पर हल्की सी भी मुस्कान नहीं थी।
वर्षा ने चॉकलेट आगे बढ़ाई, लेकिन राहुल की माँ ने न तो उन्हें लिया और न ही उसे अंदर आने दिया।
– “आ-आंटी, क्या मैं कम से कम उसे दरवाजे से देख सकती हूँ?” वर्षा ने धीरे से पूछा।
राहुल की माँ ने अपनी आँखें नीची कर लीं। – “उसे… उसे अब रोशनी पसंद नहीं है। डॉक्टर कहते हैं कि इससे उसे दर्द होता है।”
वर्षा के जवाब देने से पहले, घर के अंदर से एक धमाका हुआ—और उसके बाद एक धीमी, कर्कश गुर्राहट सुनाई दी जो राहुल की तरह बिल्कुल नहीं थी।
उसकी माँ डर गई। – “प्लीज घर जाओ, बेटा। तुम्हारी भलाई के लिए।” उसने दरवाजा बंद करने की कोशिश की, लेकिन वर्षा ने उसकी तरफ से एक झलक देखी: लिविंग रूम की दीवारें गहरे काले खरोंच के निशानों से ढकी हुई थीं, एक सड़ी हुई गंध—जले हुए केरोसिन और लोहे का मिश्रण—बाहर आ रही थी।
राहुल की माँ ने बिना कुछ कहे दरवाजा धीरे-से बंद कर दिया। अंदर से लोहे की कुंडी लगने की सूखी आवाज आई। वर्षा ने देखा कि कुंडी बंद होने के साथ ही दरवाजे के नीचे से राख जैसी काली धूल बाहर निकली और हवा में घुल गई। वहाँ से उसके घर की दूरी ज्यादा नहीं थी, पर रास्ता सुनसान पड़ चुका था। स्ट्रीट-लाइट की पीली रोशनी बार-बार झपक रही थी। आगे-आगे वर्षा चल रही थी, पीछे-पीछे उस धूल जैसी राख का एक धब्बा सड़क पर रेंगता दिखता, पर जब वह मुड़कर देखती—कुछ भी नहीं।
रात को उसने खिड़की बंद की, पर्दा गिराया और बिस्तर पर लेट गई। आधी नींद में लगा कोई सिरहाने खड़ा है। आँखें खोलीं तो वही राख का धुआँ कमरे की छत पर जमे जाले की तरह लहरा रहा था। अगले ही पल धुएँ ने मानो एक औरत का आकार ले लिया—झुलसा चेहरा, जली साड़ी। वह आकृति झटके से गायब हुई, पर कमरे में जले मांस-सी बू भर गई। डरी वर्षा ने साँस रोकी। तभी कॉपी के पन्ने अपने-आप पलटे और बीच के पन्ने पर पाँच शब्द खरोंचों में उभरे—
“राहुल अब भी अंदर है।”
राहुल का घर वर्षा के घर से थोड़ी दूर था, पर अब हर मोड़ पर उसे वही काला धुआँ दिखता—कभी बिजली के तारों पर लटका, कभी सूखे पेड़ पर। खिड़की के बाहर कौवा लगातार टेरता। उस रात कमरे की बत्ती बुझते ही बेड की पैंदी तरफ कोई बैठ गया। गद्दे में झुकाव महसूस हुआ। साहस कर मोबाइल की फ्लैशलाइट जलाई—राहुल! मगर चेहरा राख-सा काला, आँखों में गहरा डर। होंठ हिले, पर आवाज किसी और की थी—
“भागो… वो मेरे पीछे-पीछे आ गई है…”
पीछे दीवार पर तुरंत ही वही जली हुई टीचर उभरी। उसकी खाली आँखों में लाल रोशनी थी। हाथ लंबा खिंचकर राहुल की गर्दन पकड़ लिया। राहुल की परछाईं तड़पी, बुझी, और धुआँ बनकर दीवार में समा गई। अब वह औरत सीधी वर्षा की तरफ मुड़ी।
कमरे का तापमान बर्फ-सा ठंडा हो गया, जबकि हवा में जलते लोहे की गंध थी। वर्षा की चीख गले में अटक गई। तभी दरवाजा खुला—अंकिता दौड़ी आई। भीतर घुसते ही साड़ी वाली आकृति गायब, पर फर्श पर राख का गहरा हाथ-निशान और राहुल की पुरानी क्रिकेट-बॉल पड़ी थी—आधी जली, लहू लगी।
देखते-देखते सुबह हो गई, और वर्षा स्कूल को चली गई। घर में किसी से कुछ कहे बिना स्कूल पहुँचते ही पता चला—राहुल नहीं रहा। स्कूल के टीचर ने पूरी कहानी बताई कि रात तीन बजे उसके घर से चीख सुनकर पड़ोसी पहुँचे। कमरा बंद था, खिड़की काली राख से सील थी। जब दरवाजा तोड़ा गया तो राहुल फर्श पर बैठा मिला—ठंडा, पत्थर-सा।
उसकी छाती पर पाँच जले हुए हाथों के निशान थे, ठीक वैसा ही जैसा खरोंची हुई कॉपी में बना था। डॉक्टरों ने वजह लिखी—“हार्ट-फेल,” पर सबने जली हुई साड़ी की बदबू महसूस की।
जब वर्षा घर आई उसने रोते हुए सब कुछ बताया अपने घर वालों को। अगली शाम अंकिता ने माँ-पापा को समझाकर मंदिर ले जाने की सोची। वे तीनों जैसे ही मकान के ग्राउंड-फ्लोर तक पहुँचे, ऊपर की सीढ़ियों पर जली साड़ी घिसटने की आवाज आई—स्स्स्र्र… स्स्र्र… चारों तरफ लाइटें भक-से बुझ गईं।
अंकिता ने वर्षा का हाथ पकड़ा, पर हाथ पर ठंडा, चिपचिपा पानी लग गया—वह पसीना नहीं, ताजा लहू था। पीछे मुड़ते-मुड़ते सब ठहर गए। बिजली लौटी, पर धुआँ, निशान, सब गायब। सिर्फ सीढ़ियों पर एक कौवा बैठा चोंच साफ कर रहा था—उसकी चोंच से गिरे राख के कण अब भी फर्श पर भट्ठी जैसे गरम थे।
राहुल की मौत ने कहानी का सिरा बंद कर दिया, पर उस जले स्कूल की भूखी आत्मा ने नहीं—उसने बस नया रास्ता चुन लिया है। और वर्षा जानती है, दरवाजा बंद कर लेने से परछाइयाँ नहीं रुकतीं; वे तो खिड़की के टूटे शीशों से भी भीतर आ जाती हैं… जैसे उस दिन गेंद आई थी।
राहुल के माता-पिता एक सप्ताह के भीतर वह घर छोड़कर चले गए। घर बंद रहता है, लेकिन पड़ोसियों को कभी-कभी कमरों में एक हल्की, लाल रंग की रोशनी घूमती हुई दिखाई देती है, और एक कौवा गेट पर बैठा रहता है, जो वहाँ रुकने वाले किसी भी व्यक्ति को घूरता है।
वर्षा अब कभी झूला पार्क नहीं जाती। फिर भी शांत शामों में उसे कसम से एक क्लासरूम का दरवाजा बंद होने की आवाज सुनाई देती है, जिसके बाद एक लड़के की आवाज खाली गलियारों में गूंजती है:
– “मुझे जाने दो – मैं तो बस बॉल लेने आया था…”
कहानी की सीख
राहुल को लग रहा था कि स्कूल में कुछ गड़बड़ है, लेकिन उसने अपनी समझदारी पर भरोसा नहीं किया। हमें हमेशा अपनी समझदारी से काम लेना चाहिए और अगर कुछ गलत लगे तो उससे दूर रहना चाहिए।
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