प्रतिशोध की काली रात

अनुज की आँखों में प्रतिशोध की आग दहक रही थी। उसके मित्र, रवि, का क्षत-विक्षत शरीर अभी भी उसकी स्मृति में ताज़ा था – एक वीभत्स नृपिशाच के जघन्य कृत्य का साक्ष्य। रवि के गले पर गहरे, काले निशान और उसके चेहरे पर जमी अंतिम चीख अनुज को चैन नहीं लेने दे रही थी। वह जानता था कि इस अंधेरी ताकत का सामना करने के लिए उसे एक ऐसे तांत्रिक की आवश्यकता होगी जो मौत से भी परे की शक्तियों का ज्ञाता हो।

रात गहराने पर, जब उसने अपने पिता रामपाल जी के सामने अपनी इच्छा रखी, तो उनकी आँखों में चिंता और भय का गहरा सागर उमड़ आया। ‘अनुज,’ उन्होंने काँपते स्वर में कहा, ‘यह बदला लेने की राह तुम्हें केवल बर्बादी की ओर ले जाएगी। शहर के उस बाहरी छोर पर, जहाँ काली शक्तियाँ सदियों से डेरा जमाए बैठी हैं, वहाँ केवल वही जाता है जो अपनी आत्मा को खोने को तैयार हो। वह नरपिशाच अकेला नहीं है; उसके पीछे एक प्राचीन, दुष्ट शक्ति है, जिसे तुम समझ नहीं पाओगे।’

पिता के शब्दों में छिपी चेतावनी ने अनुज के मन में एक अजीब सी सिहरन पैदा कर दी, लेकिन उसकी प्रतिशोध की ज्वाला बुझी नहीं। उसे रवि की चीखें बार-बार सुनाई दे रही थीं। उसी रात, उसने एक ऐसा निर्णय लिया जिसने उसके जीवन की दिशा हमेशा के लिए बदल दी। उसने अपने लिए कोई और रास्ता नहीं छोड़ा था। उसे पता था कि शहर के बाहरी इलाके में, जहाँ सूरज की किरणें भी डर कर प्रवेश करती हैं, उसका इंतज़ार केवल अज्ञात भय और मौत कर रही है।

अगली सुबह, धुंध भरे रास्ते पर चलते हुए अनुज ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। घने पेड़ों के साए और खामोश हवा में एक अनकहा डर छिपा था। हर कदम उसे उस अनजानी दुनिया के और करीब ला रहा था, जहाँ मनुष्य की शक्ति तुच्छ थी और दानवों का राज चलता था। उसे पता था कि यह रास्ता एक तरफ़ा है – या तो वह रवि के लिए न्याय लाएगा, या फिर उसकी आत्मा भी इस अँधेरी दुनिया का हिस्सा बन जाएगी। लड़ाई का बिगुल बज चुका था।

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