कल्पना घर में आकर चिल्ला पड़ी – ‘‘ये पानी कहां चला गया। एक बरतन में भी पानी नहीं है।’’
कल्पना की मां साधना जी ने बेचैनी से कहा – ‘‘बेटी आज मुझे बुखार था, पानी लेने नहीं जा पाई।’’
‘‘ओ हो मां अब पानी के बिना कैसे काम चलेगा। रुको मैं कुएं से पानी लाती हूं।’’
कल्पना चारों तरफ देखते हुए घड़ा उठाती है। साधना जी उसे रोकते हुए चिंतित जोर से बोली – ‘‘नहीं बेटी, रात में कुएं के पास न जाना, वहां खतरा है।’’
कल्पना ने नज़रें गिरा कर कहा – ‘‘मां, तुमने कहा कि मुझे प्यास लगी है, आइए तुम्हारी बातें को छोड़ दूं। मैं गई पानी लाऊंगी।’’
साधना जी ने कांपते से कहा – ‘‘नहीं मैंने कहा न, वहां आत्माओं का वास है, रात को वहां मत जाना।’’
पर कल्पना नहीं मानती, वह जोर से दरवाजा खोलकर चली गई। बहुत समय बीत गया, कल्पना कोई भी सूचना नहीं दे पाई। साधना जी बेचैनी से दरवाजे तक उठी, और पड़ोस में रहने वाले पारस को आवाज देने लगी।
पारस उनके पास चला गया और चिंतित बोला – ‘‘क्या हुआ चाची, तुम बुखार थी, यहां उठ कर कैसे आईं।’’
साधना जी ने धीरे से बोला – ‘‘बेटा, कल्पना कुएं पर पानी लेने गई है, अभी तक नहीं आई।’’
पारस चौंक गया और साधना जी को देखता हुआ बोला – ‘‘क्या कह रही हों चाची! तुमने कल्पना को अकेले रात को कुएं पर भेज दिया। अगर कोई आत्मा उस पर कब्जा कर लेता तो क्या हो जाता!’’
‘‘बेटा, तू जाकर देख आ जरा कल्पना को।’’ यह सुनकर पारस ने सिर झटकते हुए कहा – ‘‘नहीं चाची, मैं जाने में नहीं मजबूर।’’
तभी कल्पना दूर से दौड़ती हुई दिखाई दी। पारस साधना जी को संकेत देता हुआ बोला – ‘‘लो चाची, तुम्हारी बेटी आ गई है।’’
साधना जी ने उसको देखा और चिंतित बोली – ‘‘कल्पना, तू कहां रह गई थी? तूने इतनी देर कैसे बिताई?’’
कल्पना ने गुस्से में पारस की तरफ देखा – ‘‘यही भड़काया होगा तुम्हें! चल भाग यहां से, नहीं तो मैं तुझे सिर मार डालूंगी।’’
पारस घबरा कर वहां से भाग गया। साधना जी ने उसकी बातों को दबाकर कहा – ‘‘बेटी, ऐसे क्यों कहती हैं? पारस हमारी कितनी मदद करता है, हमें तो एक आवाज पर दौड़ा चला आता है।’’
कल्पना ने गहरी निगाह से माता की तरफ देखा – ‘‘सुनो बुढ़िया, मैं किसी की बेटी नहीं हूं। यहां पर कोई नहीं आयेगा, और तुमको भी चुप रहना है, नहीं तो तुम्हारी जान ले लूंगी।’’
कल्पना की परिवर्तित बातचीत और उसका बदला हुआ रूप देखकर साधना जी कांपने लगी। सुबह उनका बुखार उतर गया। कुछ समय बाद, कल्पना खेत पर चली गई। उसके जाने के बाद साधना जी गांव की एक देवी की पुजारिन शारदा के पास गई।
शारदा ने साधना को देखकर कहा – ‘‘तुम तो आ गई, मैं तुम्हारा ही इंतजार कर रही थी। तुमने बच्ची को नहीं रख पाई, वह चुड़ेल की आत्मा के कब्जे में पड़ गई है।’’
साधना जी रोने लगी – ‘‘मांजी, यह ठीक तो है, कल्पना कुएं पर पानी लेने गई थी, वहां से वापस आई तो ऐसी बच्ची नहीं लगती।’’
शारदा जी धीरे से बोली – ‘‘मालूम है, उसे उस नीले नाख़नों वाली चुड़ेल की आत्मा पकड़ ली है। तुम देखती रहना, उसके बायें पैर का अंगूठा हल्का-सा नीला होगा, धीरे-धीरे अधिक नीला होता जाएगा, जब वह नीला से काला हो जाएगा, तब समझो तुम्हारी बच्ची खत्म हो गई है।’’
यह सुनकर साधना जी शारदा जी के पैर पकड़ ली – ‘‘बचा लो मेरी बच्ची को, तुम्हारे बिना और किसी को नहीं है।’’
शारदा जी ने आंखें बंद करके कुछ मंत्र पढ़े और पलकें खोलकर कहा – ‘‘वह बहुत शक्तिशाली है, मैं कुछ नहीं कर सकती। और फिर वह तुम्हारी बच्ची को रखकर क्या फायदा? यदि उसे संभाल लिया तो भी यह नहीं हो सकता कि उसी तरह रहे। अगर उसे गांव की किसी भी कुमारी लड़की अकेले मिल जाए तो वह उसे अपने जैसा बना लेगी। गांव की लड़कियां तो बच जाएंगी, यह बेहतर है।’’
साधना जी ने बहुत मनाने की कोशिश की लेकिन शारदा जी ने उनकी मदद नहीं की। शारदा जी ने बस इतना कहा – ‘‘तुम किसी तरह रात को घर में बंद रख दो उसे फिर गांव वाले बच जाएंगे।’’
रोते हुए साधना जी अपने घर वापस गई। कुछ समय बाद कल्पना घर लौट आई। साधना जी ने उसे खाना परोसा। उसका ध्यान उसके अंगूठे पर गया। वह हल्का-सा नीला था। इसे देखकर साधना जी ने कल्पना से पूछा – ‘‘बेटी, तू कहां गई थी? यह तेरा पैर नीला कैसे हुआ?’’
कल्पना ने कोमल स्वर में बोली – ‘‘मां, कल जब मैं पानी लेने गई थी, तभी वहां एक नई आत्मा खड़ी थी, उसका शरीर पूरा नीला था। वह मुझसे पानी मांगा, मैंने उसे पानी पिलाया। फिर उसने मेरे सिर पर हाथ फेरा, तभी मैं बेहोश होने लगी। मुझे जब होश आया तो वहां कोई नहीं था। अब मुझे गांव की अन्य लड़कियों से बात करना अच्छा नहीं लगता, रात को वह फिर मुझ पर आती है।’’
कल्पना रोने लगी। साधना जी ने उसे चुप कराते हुए बोली – ‘‘मां को बताओ, अगर तुम अकेली रहोगी तो यह स्थिति खतरनाक हो सकती है। रात होने से पहले अंदर के कमरे में बंद रहो, और मैंने इनसाफ कोशिश करूंगी।’’
कुछ दिन ऐसे से गुजर गए। कल्पना कहीं कमजोर होने लगी और उसका पैर का नाख़न धीरे-धीरे ज्यादा नीला होने लगा।
साधना जी कई तरफ से बातचीत करने की कोशिश की, लेकिन कोई भी उस चुड़ेल से कल्पना को छुड़ा नहीं सका।
एक दिन साधना जी अपने घर के बाहर आंगन में बैठी थी, तभी गांव के उपनिवेश उसके आसपास इकट्ठा हो गये। मुखिया ने कहा – ‘‘साधना बहन, कल्पना को इस गांव से छोड़ दो, अगर तुम ऐसा नहीं करो तो लोग उसे आग मार देंगे।’’
साधना जी गुस्से से बोली – ‘‘तुम लोग उस चुड़ेल को मारो जो मेरी बच्ची को ऐसा कर दी। मेरी बच्ची पर कोई जोर नहीं चलता, तुम उसको मारने की सोच रहे हो। चलो इधर से, नहीं तो मैं रात को कल्पना को खुला छोड़ दूंगी। तुम्हारे बच्चे भी ऐसे तड़पेंगे, तो तुम जानोगे क्या होता है।’’
सुबह कल्पना के कमरे का दरवाजा खोलते ही साधना जी ने देखा कि कल्पना मरी पड़ी है। उसका पूरा शरीर नीला हो गया था।
बहुत हिम्मत लेकर कुछ लोग कल्पना का अंतिम संस्कार किया। अंतिम संस्कार के बाद साधना जी सभी गांव वालों के सामने बोली – ‘‘मेरी बच्ची चली गई, किसी ने उसी की मदद नहीं की, लेकिन फिर भी मैं चाहती हूं कि यही किसी के साथ नहीं हो। तुम सब की मदद से उस चुड़ेल से बदला लेना चाहिए, नहीं तो एक दिन यह गांव से कोई जीवित भी न बचेगा।’’
सभी गांव वाले सहमत हो गए। लेकिन यह सब कैसे होगा, आगे कैसा रास्ता होगा, कहानी के अगले भाग में जानेंगे।











